दोस्तों इस बीच एक दिन फिर जिला पुस्तकालय, अल्मोड़ा जाना हुआ किताब वापसी के सिलसिले में…
पुस्तकालय बंद देखकर पता किया कि क्यों बंद है? तो जानकर एक सुखद एहसास हुआ कि पुस्तकालय के जीर्णोदार का काम चल रहा है। पुस्तकों बावत पूछने पर पता चला कि यहाँ की सारी पुस्तकें, पांडुलिपिया व अन्य दस्तावेज स्थानीय जीआईसी में सुरक्षित रखवा दिए गए हैं। साथ ही इस पुस्तकालय के परिसर से लगी ‘स्काउट हट‘ भवन में पुस्तकालय में नियमित आने वाले छात्रों के पठन-पाठन की व्यवस्था की गई है।
यकीन मानिए हमारी इस मिली जुली विरासत को बचाए जाने की इस मुहिम से एक नियमित पाठक से ज्यादा इस शहर के एक नागरिक के तौर पर जो खुशी मिली है उसे शब्दों में बयां करना नामुमकिन लगता है जिसने इस शहर, जिले, राज्य, देश व दुनिया को एक से बढकर एक हर क्षेत्र के महारथी दिए है जिसने अपने समय में इसके महत्व को समझा,पहचाना और अपनाया। पर यह भी हो सकता है कि जिसने इसका लाभ लिया तो वह चुकाया न हो पर मुझे इससे मुताल्लिक कई यादें एक बार फिर चली आईं।
मुझे अब भी याद है कि जब में अपने किसी एक दोस्त के बड़े भाई के ज़रिए उसकी किताब लौटाने, जो कि उसके मुताबिक हर शाम जिला पुस्तकालय में नियमित आते, अपनी हाई स्कूल परीक्षा के बाद परीक्षाफल के लिए पड़ने वाली लम्बी, नियमित पर अंतहीन सी लगने वाली छुट्टियों के दौरान मिला। वहाँ जाकर कुछ ज्यादा समझ तो न आया पर उस हाॅल के अघोषित सन्नाटे के बीच अखबारों, पत्रिकाओं के पन्नों की फड़फड़ाहटों के बीच कुछ फुसफुसाहटों और कुछ बुजर्गों को पढ़ने के बीच खाँसते हुए देख मन में कौतुहल सा उठा और उसके बाद एक दिन अपने से ऊँचे उन मेजों के पास डरता हुआ सा खड़ा हो ही गया केवल यह देखने के लिए कि शायद कोई काॅमिक्स भी मिल जाय। काॅमिक्स तो न मिली पर एक पतली सी पत्रिका मिली विज्ञान प्रगति, उसके बाद शायद स्पोर्टस स्टार्स जिसमें खोज-2 कर सिर्फ क्रिकेटरों की फोटूऐं देखनी होती। उसके बाद शायद कुछ ऐसी ही छोटी मोटी बालमन की पत्रिकाऐं। कुल मिलाकर वहाँ का माहौल इस कदर भाया कि परीक्षाफल की छुट्टियाँ बीत गई और नई कक्षा शुरु..।
इसके बाद नियमित तो नहीं पर जब भी मौका मिलता विज्ञान, खेल व छोटी मोटी पत्रिकाओं के बहाने जाना होता पर वहाँ का वही माहौल अब भी गुदगुदाता था। देखते-2 दो साल का और वक्फ़ा निकल गया इस बार परीक्षाफल इंटरमीडिएट का था और बरस था 1990 का।
अब पुस्तकालय नये रूप में आ चुका है। देखें तस्वीरें।
अब तक पत्र पत्रिकाओं के साथ घुलमिलने के साथ हिन्दी/ अंग्रेजी के पेपरों को खोलने व बंद करने की तमीज़ तो सीख ही चुके थे, साथ ही इंडेक्स व कैटेलाॅग की जानकारी तक ली जा चुकी थी। सुबह और शाम की दोनों पालियों में न सिर्फ नियमित बल्कि इस उपलक्ष्य में पुस्तकालय की सदस्यता भी मिल गई और कैटेलाॅग से छाँट-2 कर किताबें घर आती।
यह बात अलग कि इस अति उत्साह में इक शाम अंग्रेजी की इक पत्रिका से डाॅट पैन से खुरच – 2 कर अंग्रेजी सिखाने के इक विज्ञापन को निकाल लिया। पर अफसोस काम इतनी सफाई से न हो पाया और अर्दली बाबू के हाथों पकड़ा गया, नतीजतन लेडी लाइब्रेरियन के सामने पेशी हुई पर मैंनें अपने जुर्म का इ़कबाल बड़ी शिद्दत से किया और पत्रिका के पैसे चुकाने का ऐलान किया।
लाइब्रेरियन कड़क निकली और उसने बग़ैर जुवेनाइल लाॅ का ध्यान रखे कार्ड की दोनों किताबों की तुरत जब्ती और एक माह का जिला बदर (पुस्तकालय) का फ़रमान सुनाया साथ ही दुबारा करने पर सदस्यता वापसी और छह माह तक के बदर का ऐलान किया।
मैं अपने इस जुर्म पर बहुत हताश,निराश व दुखी था और मैंनें लाइब्रेरिन से विनय की, और फिर कार्ड में ज्यादा किताबें देने की गुहार की ताकि उन किताबों को मैं घर पर ही पढ़कर माहभर की सज़ा काट सकूँ। मैडम न पसीजी जिस पर मैंनें मासूमियत से उनसे यह पूछा कि आपके यहाँ उम्र भर की सजा के लिए कौन सा अपराध सही रहेगा? इस पर वह और ज्यादा भड़की और अर्दली से मुझे बाहर निकालने का हुक्म दे बैठी और तब मैंनें जाते-2 कहा कि मैं कल के बाद आपके रहते नहीं आऊंगाँ और रोते हुए चला आया।
अगली सुबह रातभर की उनींदें लिए मैं किताबें वापस कर कार्ड ले आया और सुबकते हुए निराशा से भरकर अंतिम बार कमरे व इमारत को निहारता रहा।न जाने क्यों उस किशोरावस्था में मुझे ऐसा लग रहा था कि लाइब्रेरियन ने मेरे साथ ज्यादती की और इस छोटे से जुर्म के लिए मुझे इतनी बड़ी सजा दी है। मैं मन ही मन इस बात से बहुत समय तक परेशान रहा,अपने पर शर्मिंदा रहा पर किसी और को न बता सका। तो यह मेरा पहला सार्वजिक अपराध व उसकी सजा का तजुर्बा रहा। हाँ पर मुझे अब भी याद है कि उस ज़ुर्म का सबब यानि अंग्रेजी का खौफ़ जाता रहा पर शहर से बाहर रह2 कर भी कई बरस तक यह यादें तारी रहीं।
इसके बाद के पाँच सालों का मुझे याद नहीं कि कभी छुट्टियों में घर आने पर मैं वहाँ गया पर अगले पाचँ सालों में मैं वहाँ फिर से जाने लगा शायद इस लिए कि वहाँ पर न वह लाइब्रेरियन थी और न वह अर्दली बाबू। पर अब मुझे पुस्तकालय कुछ अस्त व्यस्त सा लगा और वहाँ पर कोई भी फुलटाइम लाइब्रेरियन न था।और बरस 2000 आते2 तो टपकने के साथ पुस्तकालय की हालत जीर्ण होने लगी थी।
हाँ इस बार फिर वह अर्दली बाबू,चौकीदार बाबू के प्रमोशन पर वापस चले आए और एक दिन मैंनें उन्हें मुझे पहचानने का चैलेंज दिया पर वह न पहचाने।मैंनें उन्हें मेरी कारस्तानी याद दिलाई तो उन्हें याद आ गया और हम दोनों खूब हँसते रह गए और फिर बताया कि उन्होने दरअसल मुझे पहचान लिया था।मैंनें एक बार फिर मैडम के बावत पूछाँ तो बोले वह ट्रांसफर होकर हल्द्वानी/नैनीताल चली गई पर बहुत समय तक आपके बारे में कहती रही कि वह लड़का अब दिखाई नहीं देता.. खैर। चौकीदार बाबू को मैंने एक बार फिर चौकाया जब मैंनें उन्हीं दोनों कार्ड पर किताबें माँगी, जिन्हें एक बार फिर दस साल बाद देखकर वह इस बार बिना कुछ कहे हँसे थे और किताबें इश्यू कर दीं।
तब से लगातार एक बार फिर जिला पुस्तकालय से जुड़ाव हो चला और किताबें बिना बाधा के मिलने लगी और कभी-2 पुस्तकालय में बैठ भी लेता और उन पुरानी आवाजों को सुनने की एक बार फिर कोशिश करता। इधर पुस्तकालय को रोज नए अनुदान किताबों के रूप में मिलते पर उनकी देखरेख में भारी कमी दिखने लगी। चाहकर भी कुछ न कर पाने का अपराधबोध भी सर उठाने लगा था।ऐसे में कई बार उन लोगों की याद भी आती जिन्हें देख पुस्तकालय आने की तपिश होती थी।
कई सारे पढ़ने लिखने वाले लोग जिनमें साहित्यकार, पत्रकार, वकील, कलाकार, टीचर, खिलाड़ी और आम जन तक होते, जिन्हें पुस्तकालय आना जीवन का एक नितांत अनिवार्य अंग लगता। फिर ऐसे भी लोग आते जिन्होनें अपना जीवन बनाया, करियर बनाया, साथ-2 ऐसे भी उदाहरण देखे कि घर का इतना दबाव सहते हुए एक होशियार बंदा बैंक पीओ की तैयारी में अपना दिमागी संतुलन खो बैठा, जब मैंनें ऐसी हालत में एक दिन उसे सड़क पर खड़े हुए गाडि़यों व लोगो को सलामी देते देखा तो पहले यकीन न हुआ कि हमसे सीनियर यही स्मार्ट बंदा हमारे बगल में बैठ बैंकोंं की तैयारी किया करता।
इसके कुछ सालों बाद अचानक पुस्तकालय में आमद बढ़ने लगी और लगा कि एक बार फिर वाशिंदो को इसका महत्व समझ आया और फिर गौर से देखा कि यह वह चेहरे नहीं जिसे हम बचपन से देखा करते। यह थी नई पीढ़ी जिन्हें मैं जानता न था पर यह सब अपनी-2 तैयारी के लिए वहाँ मौजूद थे।और देखते-2 यह भीड़ इतनी बढ़ गई कि अब पुस्तकालय का लाॅन, बरामदा आदि सब छात्र/छात्राओं से भर गया।
अब वहाँ के कायदे आदि सब बदल चुके थे, उनके आगे मेजों पर मोटी-2 टैक्सट बुक्स, बैग्स, प्रतियोगी पत्रिकाओं के अलावा कुछ न मिलता, कुल मिलाकर केऔस की स्थति। जिला पुस्तकालय पूरी तरह से किसी काॅलेज की कक्षा में तबदील हो चुका था जहाॅ सिर्फ किसी प्रतियोगी परीक्षाओं की रिहर्सल होती,जो कि अब 9 से 5 बजे तक लगातार चलती।
मुझे तो अब वहाँ बैठने को जगह भी न मिलती पर चलो अपने को तसल्ली देता कि कम से कम पुस्तकालय चल तो रहा और इनमें से कुछ लोग ही आगे भी बचा लेंगें। अब मेरे एक निहायत न पढ़ने लिखने वाले सहपाठी शिक्षा कर्मचारी को प्रभारी बना कर भेजा गया तो मैं अक्सर उसके साथ ही बैठ जाया करता। बातो-2 में उसने एक दिन बताया कि डीईओ द्वारा इसे शिफ्ट करने का सर्कुलर निकाला गया है जो कि मैंने माँगा तो ऑफिसियल/ काॅंफिडेंसियल बता देने से इंकार कर दिया, बात सही थी।
इस बात से हैरान परेशान होकर मैं अपने पुराने वही 1988 के बरस वाले पुस्तकालय मित्र आरपीजे जो कि 80/82 के बरस से पुस्तकालय में नियमित थे, के पास पहुँचा और यह बात उन तक पहुँचाई सुनकर बड़े धैर्यपूर्वक उन्होनें पूरे देश का वर्तमान परिपेक्ष्य सामने रख दिया और बोले जिला पुस्तकालय तो बड़ी छोटी सी चीज़ है, इसे बचाने के लिए पुस्तकालय से जुड़े हर शख़्स को इसका विरोध करना चाहिए। जिसके बाद उन्होनें एक छात्र से मिलाया जिसे हमने सिर्फ पुस्तकालय में हस्ताक्षर अभियान का कार्य सौंपा बाकि हमने शहर के नागरिकों से हस्ताक्षर लिए। पर अफसोस पुस्तकालय की उस भीड़ से गिने हुए चार हस्ताक्षर मिले बाकियों नें इससे साफ इंकार कर दिया। खैर..।
इसके बाद एक नियत दिन हम युवा संगठन डिफ्फी यानि जनवादी नौजवान सभा के कुछ सदस्य डीईओ के घेराव को पहुँचे पर वह मौके से भाग निकला और हम कार्यालय इंचार्ज को हस्ताक्षर व ज्ञापन के साथ अनशन, घेराव, शिकायत, जाँच व अन्य चेतावनी देकर चले आए। इसके असर से बरस एक भर खामोशी रही और फिर छन-2 कर एक बार फिर ख़बरें आने लगीं। फिर मैंने भी इसे सामूहिक दायित्व मानने से पहले एक अंतिम कोशिश के तहत कुछ पत्रकारों को इसकी जानकारी दी। उन्होनें इसकी बेसिक जानकारी के लिए मदद मांगी कारण समयावभाव बताया। मैं मदद को राजी हुआ बदले में मैंने पूरी स्क्रिप्ट का जिम्मा लिया और तोड़मरोड़ न करने का वचन लिया।
इसके बाद मैंने हफ़्ते भर की गहन मेहनत के बाद तीन ए4 साइज़ के पन्नों की न्यूज़ स्क्रिप्ट बनाई जिसके ऐतिहासेक परिपेक्ष्य में बरस 1950 के इसकी स्थापना से लेकर जबकि उससे पहले यह ईमारत, इसी के नीचे बनी जीआईसी की मुख्य ईमारत का एक अंग हुआ करती जिसमें जीआईसी के प्रिंससिपल व उसके चौकीदार का रिहाईश हुआ करता और आज़ादी के बाद के सालों में इसे स्थानीय प्रबुद्ध वर्ग की मांग पर जिला पुस्तकालय के रूप में तब्दील कर दिया गया। यही नहीं उस न्यूज़ स्क्रिप्ट के मुताबिक पुस्तकालय के बगल में स्थानीय चौघानपाटा के गांधी पार्क में पुस्तक के साथ बैठे राष्ट्रपिता की मूर्ति व पुस्तकालय के बीच कोई एक प्रेरणा हो सकती है, जिसे कि बंगाल से आए मूर्तिकार चंद्रसेन नें इस मूर्ति के पार्श्व में हिमालय के अतिरिक्त देखा हो। वैसे आमतौर पर इसे अल्मोड़िया चाल से जोड़कर आज भी देखा जाता है कि इस चाल ने तो अल्मोड़ा में गांधीजी तक को न बख्शा और पूरी दुनिया में अपनी लाठी लेकर चलने वाली चाल को रोककर सिर्फ यहाँ बैठा दिया गया। खैर..।
कुल मिलाकर गांधी पार्क से शुरु हुई यह स्क्रिप्ट माॅल रोड से पुस्तकालय की परिक्रमा कर जीआईसी को कवर करती हुई इसके प्रांगण तक पहुँचकर पत्रकारों की आईडी के साथ अंदर का जायज़ा यथा पुस्तकालय की इमारत, किताबों की देखरेख, लाइब्रेरियन के अभाव में अनियमितताओं व पुस्तकालय में होने वाली बेतरतीब भीड़ आदि को कवर करती हुई वापस प्रांगण में आकर हिमालय वाले पार्श्व में कुछ छात्र, प्रभारी व मेरे साथ एक नियमित पाठक व सदस्य के तौर पर होने वाली वार्ता पर ख़त्म होनी थी जो कि रिपोर्ट का मुख़्य लक्ष्य था,और मेरे अकेले के बस का न था।
स्क्रिप्ट पत्रकारों के पास ले जाने पर उनके अनुसार प्रश्नोतर भी उसमें होने थे मैंने विरोध किया पर फिर मुद्दे को ध्यान रखकर इसकी भी इजाज़त दी और स्क्रिप्ट भी दे दी उन्होंने समय माँगा पर फिर भी समय न दिया और गायब हो गए। हफ़्ते बाद एक-2 कर पत्रकार स्क्रिप्ट व डिटेल्स की तारीफ़ों के पुल बाँधते रहे पर उस पर काम करने की तकलीफ़ किसी ने न उठाई और न स्क्रिप्ट लौटाने की। इस तरह मेरा यह व्यक्तिगत प्रयास असफल साबित हुआ जबकि मेरे द्वारा यहाँ तक कि इसके लिए अंत में शुल्क तक देने की बात भी की यानि मैं उनकी भाषा में प्रोड्यूसर बनने को तक तैयार था जिसका संचार मुझे खुद करना था यहाँ तक कि ऐडीटिगं भी।
लेकिन अब एक पाठक व नागरिक के तौर पर यह एक सुखद अहसास है कि ऐसी स्थिति में इस ऐतिहासिक पुस्तकालय के संरक्षण के लिए ज़िले की मुखिया स्वयं सामने आई हैं। मेरी नज़र में यह ऐसा ही एक जीवंत प्रयास है जो कि आने वाली पीढ़ी को सम्रद्ध करेगा। कुछ ऐसा ही जैसा कि 1970 के दशक में अल्मोड़ा नगर की सांस्क्रतिक पहचान कायम रखने वास्ते मास्टर प्लान लागू करने हेतु तत्कालिन जिलाधिकारी श्री सनवाल को लोग उनके व्यक्तिगत प्रयास के लिए आज भी याद करते है जब नगर की दुर्दशा आज जगजाहिर हो चुकी है।
अंतिम बात यह कि पुस्तकालय उसी रूप में संरक्षित हो इसके अंदर के आर्क, मेहराबों व चिमनियों को उसी रूप में रखकर बाहर छत की टिनों को पूरी तरह बदलकर ही पानी अंदर आने से रोका जा सकता है। इसी तरह अंदर रखी गई मेज, कुर्सियों, तस्वीरों व अन्य ऐंटीक वस्तुओं का एकत्र किया जाने हेतु जिला संग्रहालय का सहयोग ज़रूरी है। और अंत में यह गुज़ारिश कि सैन्ट्रल हाॅल न सही एक छोटा कमरा ही सही जो कि सिर्फ पुस्तकालय के पाठकों का हो सिर्फ अख़बार,पत्रिकाऐं, किताबें व जरनल पलटने का जिनका ताल्लुक किसी सिलेबस से न हो और जिसमें उसी पुराने पुस्तकालय की एक आध मेज, दो चार कुर्सियाँ व पुराने इंडेक्स-कैटेलाॅग का कोना जहाँ बैठकर हमें वही पुराना माहौल मिल सके जबकि यह सबसे जरूरी कि इसे आर्गनाइज़ करने हेतु एक अदद फुलटाइम लाइब्रेनियन जो इसे आधुनिक रूप देने मैं भी किसी तरह पीछे न रहे।
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प्रस्तुति – श्री सुशील तिवारी