हमारा शेरदा उर्फ़ शेरुवा….
यूँ तो दोस्तों अक्सर इतिहास,साहित्य अथवा सिनेमा आदि की दुनिया में कई बार हम ऐसे चरित्रों से रुबरू होते हैं जिनका जीवन एक महामानव सरीखा यानि ‘लार्जर देन लाईफ़‘ लगता है, पर यदि हम जीवन में सिर्फ अपने आप में ही ना खोए हो,अपने आसपास घटित होने वाली घटनाओं व परिस्थितियों से अनजान न हों अथवा हमारे अन्दर मानव जीवन की सही समझ यदि थोड़ीबहुत भी क्रियाशील हो गई तब आप अपने आसपास होनेवाली चीजों को न सिर्फ देखते है बल्कि महसूसते हैं।
इसी दरम्यान समाज में अलग-2 चरित्र आपका ध्यान अपनी ओर खींचते है जो असल में आपके आसपास ही होते हैं।
बरस 97 के माह सितम्बर में खतड़ुवा के बाद की बात होगी जब इसे मनाने की परम्परा थी और इसके बाद घर व उसके आसपास की सफाई के बाद घर की रंगाई-पुताई आदि भी शुरु हो जाती। खैर..
उन दिनों माँ की तबीयत उसके, सीढ़ियों से गिरकर सिर में लगी गम्भीर चोट के बाद ख़राब हो चली थी और मुझे उसकी देखभाल के लिए घर वापस आए काफ़ी वक़्फा हो चुका था, उस बीच मैं माँ से उसके कामों का अधिक से अधिक चार्ज ले रहा था जिसमें घर की भौतिक रुप से देखभाल,खेतों,बाड़ो में बोना-बाना,पानी देना आदि यानि यह सबकुछ सीख ही रहा था जिसमें रोजाना सुबह दो घंटे का कार्यक्रम खेतों बाड़ो का चलता।
एक रविवार को कार्य करते-2 देर हो गई तो अचानक नाले के दूसरी ओर से आती आवाज सुनाई देने पर देखा कि हमारा बहुत पुराना कामदार ‘शेरदा’ मुझें आवाज़ लगा रहा था तो मैनें इशारा कर उसे अपने यहाँ बुलाया (क्योंकि वह जन्मजात ऊचाँ सुनता था) माँ-बाप से मिलाया और चाय पिलवाई, माँ व मैं तो उसके मिलने पर बहुत खुश हुए पर शेरदा पूरे समय भावशून्य सा बैठा माँ के बारे में पूछता जाता और मैं इशारे से समझा-2 कर बताता जाता।
उस वक्त उसकी गम्भीरता मुझे किसी डाक्टर की मानिंद लगी जैसे वह माँ की गम्भीर स्थिति समझ रहा था। फिर शेरदा ने शुभिच्छा व्यक्त करते हुए माँ से कहा- “ठीक है जाला..ठीक है जाला..फिकर नी करौ..बराणज्यू” कहकर जाने लगा तो मैनें कुछ रुपै उसके हाथ में रखकर उससे कभी वक्त निकालकर खेत आदि में काम कर मेरी मदद का वादा ले लिया।
अब शेरदा से मिलने के बाद माँ से उसके बारे में बात हुई तो माँ उसकी बातें याद आने पर तोड़-2 कर बताती,अच्छी बात थी कि दिमाग में चोट के बाद भी उसे यह सब बातें याद थी। दिन,हफ़्ते,महीने गुजरने लगे पर खुद शेरदा गायब.. इधर मैं बेसब्र हुआ जाता पर माँ मुझे कहती कि.. “शेरुवा धोखा देने वालों में नहीं जरूर कोई मजबूरी होगी..इजा..!”
यह कहकर वह फिर कोई उसकी बात बताती, यह करीब माहभर तो चलता ही रहा कि जब माँ उसकी बातें कहती रही थी जो शेरदा के अतीत के बारे में होती, ऐसी बातें जो मैनें भी बचपन से देखी जरूर थी पर उनकी डिटेल्स मेरे पास न थी वह सब माँ के पास थी।
मसलन.. माँ बताती शायद बरस 80-81 की बात होगी दरअसल शेरुवा हमारे मुहल्ले के सामने वाले मुहल्ले के एक घर में आया करता था जहाँ वह उनके मकान,खेतों आदि की देखभाल करता,उनके व हमारे खेतों के बीच एक बड़े नाले का फ़ासला था तो अक्सर वह उन खेतों में दिखाई देता,माँ को वह भी अक्सर खेतों में कुटले से गोड़ते,बोते देखता।
उन दिनों हमारे खेत के ऊपर इक बहुत पुराना, घना भीमकाय खड़क का पेड़ हुआ करता था।
एक दिन शेरदा नाले के निकट आकर माँ से पहाड़ी में बोला..”हैं हो बराणज्यू..आपूँ जतू बाड़ में मेहनत करछां.. ऊतू हूँछ नि हुन..?” यानि उसने माँ से जानना चाहा कि क्या खेत में इतना होता है कि जितना वह मेहनत करती है..!
फिर खुद ही कहने लगा कि कभी इतवार को आऊगाँ आप एक मोटा ज्यौंड़(रस्सी) मँगा के रखना, जब तक पेड़ का असेप(छाया) कम नहीं होगी तब तक कुछ नहीं होगा, पेड़ को थोड़ा छेक दूगाँ ताकि धूप क्यारियों तक पहुचँ सके।
माँ ने यूँ ही समझा कि न हमारा पेड़, न हथियार, न ज्यौड़..बात आई गई हो गई..एक इतवार शेरुवा अचानक बण्याठ् लेकर सुबह-2 पहुँच गया तो माँ को उसे चाय आदि पिलाकर बताने में घंटाभर लग गया कि हमारा पेड़ नही, माँ कहती कुछ और वो समझता कुछ और।
तब माँ समझीँ कि उसका सुर ऊचाँ है।”खाल्ली..छेकुल..छेकुल..काटण् न्हैं.. न्हैं..!” कह-2 कर उसने आसमान सर पर ऊठा लिया।
अब ज्यौड़ कहाँ से आए.. मरता क्या न करता..तब माँ ने उसके सामने ढेरों पुरानी चारपाईयों की सफेद पट्टीनुमा निवाणें रख दी।
शेरदा ने हर 3/4 मीटर पर निवाण को 10/12 बार मोड़ कर उनके दोनों सिरों पर गाँठ लगाकर मजबूत ज्यौड़ बनाकर उस भीमकाय खड़क के पेड़ को फतह कर लिया जिसके तने का व्यास ही 2 मीटर से अधिक रहा होगा। तब पहली बार हमनें किसी इंसान को उस पेड़ पर चढते हुए देखा जबकि चढ़ने से पहले शेरदा ने बोतल में पानी, गुड़, नमक,मिट्टी का तेल आदि माँगा और एक झोले में रखकर गले में डाला।
निवाणों के सहारे चढ़ते हुए शेरदा ने पैरों के ऐसे खाँचे बनाए और कटी डालियाँ छोड़ी कि उसके बरसों बाद तक पधानियाँ चारे के अभाव में इनके सहारे चढ़ अपने पशुओं के लिए खड़क की मुलायम डालियाँ लेकर जाती। तकरीबन 50 मीटर ऊँचे इस पेड़ की छोटी मोटी टहनियों को छेकता हुआ शेरदा करीबन आधा पेड़ चढ़ने के बाद रुक गया और कटी हुई डालियाँ खेत में गिराता हुआ 4/5 घंटों में नीचे उतरकर शेरदा ने माँ से पेड़ की ओर इशारा कर कहा कि इसमें बहुत तरह के जानवर है फिर अपने शरीर के घाव दिखाने लगा जिसमें तरह-2 की चोटें,मधुमक्खी व चीटियों का चटकाया हुआ आदि थे।
फिर बताया कि वहाँ एक बेहद जानलेवा मधुमक्खियों का छत्ता भी वहा है जो भरा पड़ा है, इसलिए ऊपर नहीं गया पर वहाँ पर इस तरह से छटाई की है कि अगले इतवार तक सब मक्खियाँ भाग जाएंगी।
और फिर मुझे याद है कि हम सब बच्चे पड़ोस के बच्चों के साथ खेल रहे थे तब तिमंजिले से अचानक माँ चिखकर खिड़की से बोली..”सब बच्चे जल्दी से लेट जाओ..जो जहाँ पर है..!” तो आननफानन में सब बच्चे कोई जल्द कोई देर से छत पर लेट गया और हमने हमारे सर के ऊपर के आसमान से झिंगुरों की तेज आवाजों के साथ एकदम काला होता आसमान देखा।
माँ ने बताया कि वह उसी पेड़ की मधुमक्खियाँ है शेरदा वाली।
तब से सबक हमेशा याद रहा कि मधुमक्खियों का हमला होने पर सबसे पहले लेटना है।
अगली बार आकर शेरदा नें और ऊपर तक छटाई कर दी और पेड़ से 3 फीट लम्बा व 2फीट चौड़ा सूखा छत्ता उतार लाया और मोम व दवा के रूप में सबको बाटा गया।
हाँ एक और बात जब वह उतर रहा था तब उसने बायें तरफ़ की एक डाल को रहने दिया सिर्फ उसकी पतली डालियाँ काटी फिर उस पर उस रस्सी को खोलकर सीधा लटकाकर फिसलता हुआ नीचे आकर मेरी बड़ी बहन से बोला..तुम बच्चियों के लिए यह लो झूला..!
वो लोग बढ़े खुश हो गए और माँ नें झूले के नीचे बोना छोड़ दिया और 2/3 माह बाद एक शाम झूले से गिरकर पड़ोस की एक बच्ची को चोट लगी तो माँ ने रस्सी ऊपर डाली की ओर फेंककर उसी डाली में फसा दी और हम बच्चों का झूलना बंद हुआ.. खैर। इसके बाद साफ सफाई, नये बने खेतों, बाउण्ड्री, दीवार, नाली, निकासी आदि ने खेत की साग सब्जी की उत्पादकता में गज़ब की व्रद्धि कर दी और उसके इस हुनर ने माँ को उसका न सिर्फ मुरीद बना दिया बल्कि उसे हमारे घर का स्थाई सदस्य बना दिया। अब शेरदा कुल मिलाकर साल में 2/3 माह हमारे घर आता और देखभाल, रंगाई पुताई, गाय की देखभाल, लकड़ी कोयले का इंतजाम आदि करता बदले में उसका खाता, घर के अन्य खातों के साथ जोड़ दिया गया। अब मैं अपनी बात कहूँ तो मुझे उसके काम देखकर वह सीधा जंगल से आया बहुत ताकतवर इंसान लगता, पर मैं जान गया था कि वह कान नहीं सुनता और जोर-2 से बोलता है मुझसे हिन्दी में और मज़ाक भी करता है।
मुझे याद है कि एक बार उसने मुझे जोर का चिड़ाया और हमारे दूसरे छोटे मकान ‘नयेघर’ की छत ठीक करने को ऊपर चढ़ गया जो मुख्य मार्ग से लगा था। इस बात से चिढ़कर मैं रास्ते से छोटे-2 कंकर उठाकर उस पर फेकनें लगा। यह दूरी 10 फीट की होगी और उसकी मेरी तरफ पीठ थी इस बात से मेरी हिम्मत बड़ी और न जाने क्यों मैनें उसके कान कम सुनने को कंकर की चोट से जोड़ लिया पर मैं गलत था दो बार लगने पर उसने देखा तो उसे विश्वास न हुआ, तीसरी बार वो कन्फर्म हुआ व न मारने को कहा पर मैं न रूका तो उसने वहीं से माँ को धात् लगाई..”बराणज्यू..यो मैकै ढूंग मारनाअअ..!”
माँ रसोई का काम करते हुए बरामदे में आकर मुझे डाँटकर बुलाने लगी तो मैं छिप गया और उसके वापस जाने पर अंतिम बार उसे सबक सीखाने के लिए मुट्ठीभर कंकर एकत्र किये और शेरदा की ओर फेंके, ठीक इसी समय शेरदा पीछे मुड़ गया और एक कंकर उसकी आँख के ऊपर लगा।
बस शेरदा दनदनाता नीचे कूदा और उसने अपने नंगे हाथ से सिसुंण का एक ढाक तोड़ा और झप 2 कर मेरे दोनों हाथों मे एक-2 बार लगाया तो मेरा टिटाट् पड़ गया तो वह मुझे माँ के पास ले जाकर बोला..”यो नि माननाछि..मैल सिसुण लगै हालो..!”
माँ ने भी..”ठीक करों..!” कह उसका पक्ष लिया पर उसके जाने के बाद हाथों में घी मलते हुए समझाया भी।
उस दिन से मैं शेरदा से डरता पर नफरत करता और उसको छुप-2 के देखता।
यूँ ही समय गुजरता गया और मेरे बाहर जाने के साथ ही मेरा उसके साथ सम्बन्ध कट गया पर मुझे वह बिच्छू वाली बात हमेशा याद रही..।
यहाँ तक तो यह बातें मैनें कुछ माँ से सुनी कुछ अपनी देखी,कही।
पर आज लगभग दस बरस बाद उसे ज्यू का त्यू देखने पर मेरे उसके प्रति ऐसे भाव न जाने कहाँ से आ पड़े कुछ समझ न आया,पर अब वह फिर गायब हो गया था।
लगभग 6 माह बाद होली के बाद एक दिन मैनें व्यस्तता के बीच अपने कार्यस्थल के बीच बैंच के किनारे एक सज्जन को बैठा देखा।
मेरे खाली होने पर नीले रंग की एक ही कपड़े की बनी पहाड़ी टोपी, गलबंद कोट व पैंट के साथ काले चमड़े के जूते पहने व हाथ में बढ़िया छड़ी लिए इन्हीं सज्जन ने दोनों हाथों के बीच छड़ी को छाती तक लेजाकर अभिवादन किया तो इस आकर्षक वेशभूषा के बीच मैं चकित हो उसे पहचान गया।
वह हमारा शेरदा था जिसने देरी का कारण बड़े बेटे के यहाँ हरिद्वार जाना बताया जिसकी अभी हाल ही में उसने शादी भी की थी।
अब वह मेरे यहाँ आने को तैयार था मैनें इतवार से आना तय किया।
अब पिछले दस बरस से इतना काम था कि शेरदा अगले दो माह से अधिक समय तक काम में लगा रहा।
कभी-2 वह छुट्टी भी करता और कभी मेरी छुट्टी होने पर मैं पूरा दिन उसके साथ काम करता।
नाले से खेत का कटान होने पर मिट्टी बहने से रोकने को ऊपर की तरफ़ दीवार लगाकर एक दिन बोला कि नीचे की तरफ एक पेड़ लगाना चाहिए ताकि मिट्टी भी रूके व इस बुढ़ाते खड़क का प्रतिरूप हो, उसकी पर्यावरण संरक्षण की इस बात पर मुझे मजा आ गया और मैं एक पेड़ की पौध उठा लाया।
उसकी तारीफ़ उसने पेड़ ऐसी जगह लगाया कि जहाँ उसे नाले से अधिक सींच मिले और सुरज की रोशनी भी।
यकीन मानिये अगले 5 बरस में बकायन का यह पेड़ 100 फीट से ऊँचा था। शेरदा के साथ यह 2 महीने से अधिक का वक्त इकट्ठा गुजारने के साथ, उसके साथ उसके काम में हाथ बटानें व देश,दुनिया के बारे में वह क्या सोचता है, यह सब जानने के बाद ही मेरा दिमाग़ इस दुनिया में एक मजदूर के योगदान को समझने लायक खुल पाया, यह बात में यकीन के साथ कह सकता हूँ और बाद में मजदूर राजनीति से मेरा जुड़ाव हुआ।
यही नहीं उसके सिर्फ 2 माह के काम के वाल्यूम को समग्र रूप से देखने पर मैं चकित रह जाता कि सिर्फ एक मजदूर केवल गैंडी, सम्भल, कुटला, बड्याट् आदि से इतना काम कैसे कर सकता है तब समझ आया इन सबके साथ श्रम का मेल।
लगभग जन्मजात बहरा होने के साथ,दुनिया की बेहतरीन बुनियादी बातों का खज़ाना हुआ करता उसके पास मसलन आग की जरूरत कैसे/क्यों पड़ी,कपड़ो की ज़रुरत,अन्न खाने/उपजाने के सिद्धान्त,कुटले से लेकर जेसीबी मशीन, गाड़ी, रेल,जहाज, हेलिकाॅप्टर का ज्ञान, धूप द्वारा समय का ज्ञान, इन सब को वह मिट्टी में एक लकड़ी के टुकड़े से खरोंचकर समझाता, मानव शरीर/बीमारी की बुनियादी समझ, खेती-बाड़ी,जड़ी-बूटी क्या चीज उसके खज़ाने में न होती।
पर उसकी शारीरिक बनावट व क्षमता का परस्पर विपरीत मेल था, निश्चित भोजन, पानी, चाय, तम्बाकू का मेल।
हिम्मत इतनी कि बाघ से भी भिड़ चुका था। पानी वाले हुक्के का शौकीन शेरदा घर से बाहर छोटी हथेली वाली चिलम या लकड़ी का पाइप इस्तेमाल करता,जिनमें कई तरह के जुगाड़ होते, कई तरह के धातु के टुकड़े, प्लास्टिक पाइप आदि यानि खुदाई,गुड़ाई में जो इस्तेमाल करने लायक चीज़ मिल जाय बस उसे याद रहता वो चीज़ कहाँ इस्तेमाल होनी है।
इसी तरह अपना चश्मा व लाठी की मूँठ ताँबे,एल्यूमीनियम के तारों से सजी रहती और मुझे बड़ी आकर्षित करती।
एक दिन उसने पूछा कि मैनें तम्बाकू पिया है तो मैनें सिगरेट की बात कही, तब उसने उस तम्बाकू की तारीफ़ की और एक दिन तो छोटा हुक्का मेरी ओर बढ़ाया तब मैनें मना न किया,मुझे वाकई अच्छा लगा और फिर उसके साथ कई दिन पिया, एक दिन पाइप और तम्बाकू खरीद लाया पर शेरदा के साथ वाला मज़ा आना तो दूर वह मुझसे ढंग से जला ही नहीं, थकहार कर बाद में उसे ही दे दिया।
इसके बाद अगले 15 बरस तक शेरदा का मेरे साथ सम्पर्क बना रहा,कभी पत्थर की छत,कभी पेड़ो की छंटाई या फिर खेत आदि।
बरस 2005 में माँ के गुज़रने से कुछ माह पहले उसी पेड़ पर जाने की रट लगा बैठा जिसे उसके कहने पर मैने लगवाया और आज बेतरतीब बढ़ चला था। मैनें उस की उम्र देखकर मना किया कि किसी नेपाली से कराते है तो बोला..”नहीं2..नेपाली बहुत पैसा लेगा..मेरी फिकर न करो..मैं बानर हूँ..बानर बूढ़ा होने पर भी पेड़ पर चढ़ना नहीं भूलता..!” मेरे पास उसकी बात का कोई उत्तर नहीं था।
तब मेरा ब्याह हो चुका था और मेरी पत्नी से वह बहुत अनौपचारिक सी बाते करता और ब्वारि की तरह ट्रीट करता जिससे वो चिढ़ जाती और ऐसा करने में शेरदा को बड़ा मज़ा आता। तब अपना झोला पकड़कर शेरदा पेड़ से 2/3 घंटे में उतरने की बात कह चढ़ गया और मैं ड्यूटी पर चल दिया।
जाने से पूर्व मैनें पत्नी से उसके उतरने पर चाय, पानी, खाना देने को कह दिया।
इधर 4 घंटे बीतने पर भी वह पेड़ से न उतरा तो पत्नी परेशान, न चाय, न पानी, अब क्या करे..?
मजे कि बात कि तीन मंजिले की मेरी छत और पेड़ पर चढ़ा शेरदा हवा में करीब 10/12 मीटर की दूरी पर होंगें,पत्नी आवाज़ लगाए,बर्तन आदि बजाए पर शेरदा ने न सुनना था न सुना।
2 बजे मैं घर पहुचाँ तो शेरदा पेड़ में और पत्नी परेशान, मैनें तुरन्त शीशा उतारा और धीरे-2 शेरदा के चेहरे में सूरज की रोशनी दी तो शेरदा तुरन्त पलटा तो मुझे डरकर उसका बिच्छू लगाना एक बार फिर याद आ गया, मै तुरन्त गिलास व लोटा दिखा कर इशारे से बुलाने लगा पर तब शेरदा ने पेड़ में लिपटी हुई अमरबेल की पत्तियों को छीलते हुए नीचे से उस रस्सीनुमा बेल के सहारे चाय,पानी व गुड़ की छोटी सी बाल्टी खींच ली और पेड़ छेककर नीचे उतर आया और हमने चैन की साँस ली।
कुछ माह बाद माँ के गुजरने पर शेरदा..”भल..भौ..भल..भौ..बराणज्यू तर गईं..! “कहते हुए गया शेरदा उसके बाद कभी काम पर नहीं आया।
उसके अपने तर्क, व्याख्याऐं आदि हुआ करती, बस कभी कभार इनके साथ ही मिलने चला आता।
वही नीला सूट पहन कर एक दिन फिर शेरदा आया अपने छोटे लड़के की शादी हमारे पड़ोस में ही कर,”मेरी जिम्मेदारी पूरी हो गयी” यह कहने।
अपने गाँव में शराब का प्रवेश देख, शराब से खार खाता शेरदा आज तक अपने गाँव से बाहर सीमा पर रहता और बरस 2016 तक अक्सर गाँव से 8/10 किमी दूर पैदल ही अल्मोड़ा आ जाता तो मैं जबरन जेबखर्चा आदि देकर उसे गाड़ी से भेजता।किसी व्यक्ति विशेष के बारे में उसकी जानकारी मुझे चकित कर देती जिनके लिए वह महज ‘लाटा’ होता।
कुल मिलाकर शेरदा जैसा जीवन चरित्र मुझे एक महामानव सरीखा लगता और आज भी न जाने क्यों लगता है कि एक बार फिर लाठी टिकाता शेरदा कभी किसी दिन मेरे दरवाज़े पर दस्तक दे सकता है पर फिर भी शेरदा आज जहाँ हो वहाँ खुश रहे,स्वस्थ रहे क्योंकिं अपने आसपास की दुनियाँ में बाकियों को अपने हुनर से प्रभावित करना आता है उसे..।