बादल… बेला…
यों तो दोस्तों इस दुनिया में होने वाला हर लम्हा, हर चीज़ परिवर्तनशील है जो कि प्रकृति का नियम है। इस पर समय रुपी दौर की क्या बात करे..
अलग-2 दौर ने वक्त – 2 में आदमी को कैसे छला है..
यह सिर्फ वह आदमी या वक्त ही बता सकता है..
हम आप तो इसके केवल एक गवाह हो सकते हैं..
पर हमारे देखते-2 इसी ज़िन्दगी में दौर के दौर बदल जाते है और साथ ही दौर के किरदार भी।
आज बात एक ऐसे ही किरदार की जिसने एक दौर में अपने परिवार की भरी पूरी सफलता का आनन्द उठाया और फिर एक दौर गुजरने के बाद सड़क पर आ गया।
शायद 1950-60 के दशक की बात होगी जब एक परिवार उस दौर में माइग्रेट होकर हमारे मुहल्ले के एक घर में किराये में रहने लगा जहाँ विषम आर्थिक स्थितियों से जुझता परिवार बढ़ा और बढ़ता गया।
हमारे चाचा, बड़े भाईयों के साथ ही पैदा हुए बच्चे उनके साथ ही बढ़े हुए और सीमित साधनों के बीच परिवार के बच्चे व आठ भाई एक-2 कर रोजी रोटी के इंतजामात में लग परिवार से इधर उधर की राह हो लिए।
इनमें बचे चार भाइयों ने यही अल्मोड़ा में रह आजीविका कमाने की ठानी।इन चारों में सबसे बड़ा मेहनती, सामाजिक, महत्वाकांक्षी व साहसी होने के साथ दूरदर्शी निकला और उसने केएमओयू बस टेशन के ठीक बगल में एक दुकान लेकर मिठाई की दुकान खोल अन्य भाईयों को काम पर लगा दिया।
धीरे- 2 दुकान ‘कुमाऊँ स्वीट्स‘ चल निकली और परिवार के आर्थिक हालात सुधरने के साथ ही कुछ समय बाद अपना मकान बनाकर रहने के साथ ही कुछ समय बाद पहली व दूसरी केएमओयू की बस तक खरीद ली और अल्मोड़ा नगर के एक प्रमुख व्यवसाई बन गए।
यह 1980 के दौर की बात है और ठीक यहीं से एक बादल के नगर भर में छा जाने की शुरुआत होती है।
दरअसल बड़े भाईयों की छत्र छाया के बावजूद इनमें सबसे छोटा भाई ‘सुनील दत्त‘ पढ़ना लिखना छोड़, स्टेशन के आसपास का माहौल देख आवारगी में आ गया और नगर भर के गुंडे बदमाशों की शोहबत में रूचि लेने लगा।
स्टेशन के आसपास होने वाले रगड़ो झगड़ो में नाम आने से उसकी हिम्मत व प्रसिद्धि बढ़ी और नगर में उसे ‘सुनिया बदमाश‘ का उपनाम मिला। बेशक सुनिया चोरी-चकारी, डकैती-खून आदि में कतई शामिल नहीं रहा पर दादागिरी,मारपीट, हाथापाई आदि में सबसे आगे रहता और घर में डरता हुआ एक छोटा भाई भी। चूकिं उस वक्त हम बच्चे थे तो मसले समझ न आते पर डरते बहुत थे पर दूर से खासकर अपने मुहल्ले की खड़ी होली मे बड़े डर और आशंकित होकर शामिल होते।
इसके बाद आई 1985 में मिथुन चक्रवर्ती की एक फ्लॉप फिल्म ‘बादल‘ जिसमें मिथुन दा का किरदार ‘बादल‘, दिखने में अल्मोड़ा के सुनिया से इतना रिजेम्बल हुआ कि रीगल सिनेमा हॉल के परदे पर बादल के आते ही हॉल में “अबे..सुनिया बदमाश.. सुनिया बदमाश..!” के आवाज़ें गूंज उठी..।
बमुश्किल दो हफ्ते टिकी फिल्म ‘बादल‘ की बदौलत लोकल सुनिया बदमाश अब ‘बादल सिहं‘ हो चुका था, और इस तरह अल्मोड़ा को एक और किरदार मिला ‘बादल’। महज पाँच फीट दो इंच का सुनिया अब सारा दिन बादल सिहं के गेटअप में सारा नगर घूमता और शाम को अपने लुक में छोटी मोटी बदमाशियाँ करता।
अब पैसे वाले परिवार से होने से अब सुनिया ने बादल फिल्म के बादल की चाल अपनाने के साथ-2 लगभग सारे कपड़े, हेयर स्टाइल, चश्मे यहाँ तक की प्वाइंटेड जूते तक सिलवा लिए और ग्रे कलर का एक थ्री पीस सूट भी, जिसके साथ प्वाइंटेड व गोल फ्रेम वाला गोगल पहन सुनिया स्टाइल मारता ठीक डिग्री कालेज टाइम पर गांधी पार्क के गेट की ऊचीं दीवार पर होठों पर बिन जलाई नेवी कट लगाए, हाथ की उगँलियों को कभी वास्कट में तो कभी पेंट की जेब में फँसाए अपने चेले चपाटो से हँस-2 कर लड़कियों की ओर देखता हुआ कभी ऊची तो कभी बेस आवाज़ में बात करने की कोशिश करता पर चेले चपाटो को दीवार पर चढ़ने न देता।
अंत में उसी नेवी कट में माल भरकर उसी दीवार पर बैठकर पीने के बाद आपस में ही झगड़ा होने लगता और खलबली मच जाती। कुल मिलाकर कई बरस बादल सिहं का जलवा रहा जो अक्सर जीआईसी से आते जाते हम भी देखा करते..।
हमें बादल मुंह न लगाता और कभी-2 मुहल्ले में आकर धमकाता और डीगें हाकताँ और यह सब वह हमारे सामने मुम्बई की टपोरी भाषा में करता, अपुन.. दादा .. जिबुहिल्ला… ‘जिबुहिल्ला‘ उसका तकियाकलाम हुआ करता, बात-2 पर यह नाम लिया करता।
मुहल्ले के उसके संगी साथी उसे सुनिया या बादल कहते तो वह धमकाता.. “बेटा.. बादल सिंग कौ (कह).. पूरा नाम लेकर इज्जत से बात कर.. पूरे अल्मोड़े में नाम है मेरा.. तू क्या समज रिया.. चtY..!”
फिर किसी से पंगा लेने के बाद अपना परिचय देते हुए तुरन्त कहता.. “बेटा..बादल सिंग नाम है मेरा और स्टेशन में रहता हूँ मैं.. मुझसे पंगा मत लेना.. बेटा.. महँगा पड़ेगा.. छोड़ुंगा नहीं तुझे.. स्टेशन से कही न कही तो जाएगा.. मेरे जलवे देखने है तो बादल पिच्चर देख लेना बड़े पर्दे पर.. हाँ.. मैं बता रा हूँ डियर..!
अचानक ज़िन्दगी ने थोड़ा करवट ली और वही बड़ा भाई गुज़र गया जिसने मेहनत कर इतना सब कुछ जोड़ा, उन दिनों दूसरा छोटा भाई गोकुलानन्द अल्मोड़ा डिग्री कालेज में छात्रसंघ का चुनाव लड़ रहा था, जीतने के चांस कम थे पर बड़े भाई के गुज़रने पर सर मुड़वाये हुए रातों रात वोट माँगने पर सिम्पेथी से चुनाव जीत तो गया पर ‘कुमाऊँ स्वीट्स‘ की चमक जाती रही और बसें आदि भी बिक गयीं।
फिर 90 के उस दौर में कम्पटीशन के चलते मिठाई की दुकान में चाय आदि भी जोड़ दी गई और जैसे तैसे गुजारा चलता रहा और समय गुज़रने के साथ आमदनी घटने से अब तीनों भाई अच्छे दिनों को याद कर ग़म गलत करने लगे।
90 का दशक बीतते-2 बुरी तरह दिन फिर चुके थे, बड़ा भाई कचहरी में कैंटीन, उससे छोटा दुकान का काम देखता जिसका दुकान मालिक से रगड़ा भी शुरु हो चुका था, और बादल ब्याह/निमंत्रण के खानसामे के हैल्पर विशेषकर ‘कुन्दा हिलाने‘ की भूमिका में नज़र आता पर उसकी चाल और तेवर अभी भी पुराने सरीखे ही थे, पर अब अंत में पी खाकर पंगा करता और अक्सर मार खाता.. लेकिन फिर अगले दिन उसी काम में उन्हीं के साथ होता और फिर वही घटनाक्रम दुहराता.. जिनके कारण अब छोटे मोटे कोर्ट कचहरी के मामले भी उस पर बन पड़े।
तब तक मैं वापस आकर अपना व्यवसाय शुरू कर चुका था और कुछ नये बदलाव के लिए समाज में जगह बनाने की कोशिशों में हम भी लगे रहते, एक सुबह बादल घर के आँगन पर आकर मुझे पुकारने लगा और बचाने की गुहार लगाने लगा तो घरवाले डर गए और मुझसे कई सवाल पूछने लगे।
मैनें बाहर जाकर समझने की कोशिश की पर नाकाम रहा तो मैनें उसे मेरे कार्यस्थल पर बुलाया और पूछा.. वह डर रहा था और अरेस्ट होने की बात करता.. मैनें मदद कर दी तो उसके प्रति मेरे बचपन का डर भी खत्म सा हो गया।
इसके साथ ही इन पचड़ो से बाहर निकलने को उसे समझाया बुझाया और बाकी मामलों से निकलने में मदद की तो बादल मेरा मुरीद हो गया और इज्जत देने लगा, साथ ही यह कहना न भूलता कि.. “भाई.. कही कभी भी पंगा हो तो मुझे बताना..!” यह सुन मुझे उस पर सहानुभति के साथ हँसी भी आती।
लेकिन इसका फायदा यह हुआ कि हमारे खुलने से अब वह होली आदि की महफिल में पहले से कम पंगा कर इज्जत आदि देने लगा।
उसकी एक बड़ी खासियत यह रही की मुहल्ले के सुख-दुख के कामों मे हमेशा आता चाहे बुलावा हो न हो, मेरे ब्याह से लेकर माँ-बाप के गुजरने पर तक वह मेरे हर काम में आया और शालीनता के साथ घर, रिश्तेदारों से पेश आया।
इधर अचानक गोकुलानन्द की मौत ने उसे एक बार फिर झकझोरा, इस बार वह और बड़ा भाई एक दूसरे के साथी थे बाकि कुछ अन्य भाई अपने-2 परिवार की देखरेख में लगे थे।
कुछ समय के बाद ‘कुमाऊँ स्वीट्स‘ की वह दुकान ढहने के बाद इक नई परिस्थिति पैदा हुई जिसमें बादल कारोबारी रूप से सड़क पर आ गया।
यहाँ से बादल की जिन्दगी का एक और पड़ाव शुरू हुआ जिसमें वह उसी टूटी दुकान की जगह पर एक फोल्ड़िग खटिया बिछा उस पर जाड़ों में गर्म मोजे, मफलर, टोपी और गर्मियों में रुमाल, टोपी, मोजे आदि बिछाकर बेचता और शाम तक पीने खाने का जुगाड़ कर लेता।
कभी पुराने यार, दोस्त, परिचित मिलते तो बादल बड़े अधिकार से पव्वा पीने के पैसे माँगता और लोग कम, ठीक या कभी ज्यादा भी दे देते पर टालने वालों को ऐसी पुरानी बात याद दिलाता कि चुप रहने के लिए तब भी देते और कुछ पुराना जलवा देखे लोग तो तरस खाकर भी हाथ में कुछ रख देते।
पर बादल ने दो एक अवसर के सिवा मुझसे कभी पैसे न माँगे और मैनें दिए भी.. हाँ उससे छोटा मोटा सामान खरीदता तो खुश हो जाता।पीने पर आता तो गले-2 पीता और शक होने पर सीधा मेरी तरफ आता तो मैनें कभी लीवर, पीलिया की शिकायत बता दी तो महीनों दारु छोड़कर सवेरे शाम घूमने लगता और कहता कि भाईयों की तरह मुझे जाने की जल्द नहीं..।
ऐसे ही एक दिन बादल के मुझे बताए गए एक वाकये के अनुसार एक दिन उसके फड़ में कॉलेज में पढ़ने वाली दो लड़कियाँ आई और सामान देखने लगी..। सामान तो पता नहीं लिया कि नहीं पर वापस जाती हुई दोनों में एक, बादल के कुछ कहने पर मुड़ी और मुस्कुरा भर दी.. बस बादल को उसी समय उससे इकतरफ़ा वर्चुअल प्यार हो गया और बादल उसे ‘बेला‘ कहने लगा..।
कहाँ बादल 50 बरस का और बेला 18 भी थी न थी पता नहीं, उसका यह असल नाम था न था यह भी नहीं पता पर बेला के बादल के फड़ में आने भर से बादल की सूखती बेल में नई जान ज़रूर आ गई..
अब वह बड़ा खुश रहता.. आते जाते मिलने पर उसे हाय/बाय करता और वह मुस्करा भर देती तो बादल इसी में खुद अपने दिल पर छा जाता पर उसने कभी कुछ न आशा और न अशिष्टता की।
बेला भी शायद यह समझती कि उसके मुस्कराने भर से किसी को नई जिन्दगी मिलती है तो मिलती रहे, इसमें उसका क्या जमा खर्च होता है।
बादल अपनी इकतरफ़ा मुहब्बत में उसकी बातें करता और कहता ये मुहल्ले वाले क्या जाने मुहब्बत किसे कहते हैं.. ये नहीं जानते कि.. “बेला का खेला.. बादल का मेला है डियर..!”
खासकर होलियों में देर रात तक मुहल्ले में मजमा लगता जिसके बाद बादल फिल्मी गीतों की शुरूआत करता हुआ हमेशा की तरह काका की फिल्म-आराधना का गीत बेसुरा होकर.. “रूप तेरा मस्ताना,प्यार मेरा दीवाना..!” से करता पर लगाता मिथुन दा के ठुमके.. होते-2 काका के इतने गाने गाता कि धौ कर देता।
और अंत में पव्वा उतरने पर बादल बगल की गली में दो चार कश बूटी के मारने जाता तो हम लोग योजना बना कर आपस में अंग्रेजी में बोलते तो बादल आकर बीच में हिन्दी में बोलता..
“मैनें बी अंग्रेजी बोलना रैमजे से शुरु कर दिया था डियर.. बेटा अभी बोलता हूँ..” कहकर..”हेल्लो..हाउ डू यू डु.. आई एम बादल सिंगँ.. यू नो.. ए नाउन इज दा नेम आफ ए परसन, प्लेस और ए थिंग.. अंडरस्टैंड.. यस.. कहता फिर नाउन रिपीट करता हुआ कक्षा 6 में रटी रटाई अंग्रेजी सब नज़र कर देता और फिर अपने अंग्रेजी के गुरूजी का नाम भी लेता.. फिर ठहाका लगा कहा..
“एक बार स्टेशन में एक अंग्रेजयाणि से मार खाते-2 बचा यार.. बाब्ब्हो ..!” कारण पूछने पर बताया.. “अच्छी खासी अंग्रेजी में येई बात कर पटा ली थी माँ कसम..! एक ने बीच में आकर भाँची मार दी.. अरे.. साले @$% ने बीच में आकर उसे समझा दिया.. बड़ा मूड खराब हुआ उस दिन मेरा..!”
मैनें पूछा.. “क्या बताया.. बादल.. अंग्रेजन से कहा क्या..? तो मासूमियत से बोला..”अरे मैंने.. आई वांट टू कच्छा खोल कह के गोरी चिट्टी.. पटा ली थी यार साली.. माँ कसम अच्छी खासी.. बताओ मैनें गलत क्या बोला यार..?”
और एक दिन दोपहरी किसी बारात के घर के खेत में, हलवाई की मदद को कुन्दा हिलाने गया बादल, आपस में हुई धक्कम धक्का में गिरकर अपने दिल की धड़कन गवाँ बैठा और कही दूर की हवा में बह निकला, पोस्टमॉर्टम को गया शरीर बारिश में दो दिन मोर्चरी में रहा.. बेला का बादल कही दूर उड़ चला था, उस रात sm पर उसे याद कर मैंने किशोरदा का गीत गाया.. “मेरा जीवन कुछ काम न आया.. जैसे सूखे पेड़ की छाया..!”
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