नंदू मैनेजर…
यूँ तो दोस्तों सच है कि इस दुनियाँ में बिना मेहनत मशक्कत के कुछ नहीं मिलता बावजूद इसके अपने समाज के अधिकांश मज़दूर या शारीरिक श्रम करने वाले लोग सारी उमर भर फाँके में ही रह गये जबकि दलाल – ठेकेदार और ठेकेदार – नेता बन सारे राज्य के संसाधनों को पलीता लगाकर अपना घर भर गये। ऐसे ही शारीरिक परिश्रम करते-2 हमारे देखते तमाम् कई मेहनकश दुनिया से विदा हो गये।
ऐसे ही एक किरदार मैं रुबरू हुआ बरस 1995 में अपनी बड़ी बहन के ब्याह के दरम्यान..। उन दिनों के प्रसिद्ध स्थानीय होटल त्रिशूल, चौघानपाटा शहर को एक प्रसिद्ध व्यवसाई जगन्नाथ साह जी (अब स्वर्गीय) चलाया करते जो स्वयं अपने आप में एक दिलचस्प किरदार रहे। पर उनके बारे में फिर कभी..।
उसके बाद मुझे याद है कि मेरे अल्मोड़ा वापस आ जाने के बाद एक बार कुछ बाहर के मेरे मित्रों का पहाड़ घूमने का कार्यक्रम बना और साहजी के बाज़ार में मिलने पर मैंने जिक्र किया तो बोले कि.. “ज़रूर-2.. आप कभी भी आऐं.. मैं नहीं तो मेरा मैनेजर मिल जाएगा..!” तब मित्रों के आने के दो एक दिन मेरे त्रिशूल होटल आने पर न साहजी मिले और न मैनेजर.. कई आवाजें लगाई पर कोई जवाब नहीं.. नीचे की मंजिल चैक करता में जब दूसरी मंजिल पहुँचा तो खोजते-2 एक गैलरी में कुछ चीजें देखी मसलन बोरिया, बिस्तर, कपड़े, बक्से आदि आगे की ओर एक रसोई सी जहाँ स्टोव रखा जल रहा था और कुछ पक रहा था।
मेरे फिर आवाजें लगाने पर वही फटेहाल आदमी छत से उतरता चला आया। मेरे कोई है पूछने पर – उसने ना में सर हिला दिया। मैंने कहा कि.. “भाई..मुझे फलानि तारीख़ से दो कमरे बुक करने है साजी (साह जी के लिए आत्मीयता भरा सम्बोधन) से बात हुई है उन्होनें मैनेजर से बात करने को बोला है.. उसने फिर पहाड़ी में कहा.. पत्त नै सैब..मैं कह दूँगा उनसे..इंतजाम है जाल.. मेरे एडवांस देने पर फिर बोला.. ना है जाल सैब..!” मैं वापस चला आया।
मित्रों के सिर्फ रुकने आदि की व्यवस्था मेरी थी और पीने खाने की उनकी वैसे वो गाड़ी, घोडा़ व असला लेकर ही चले थे। धकधकाते दिल से गाड़ी पार्क करवा के होटल में गया तो साजी मिल गये और स्वयं ही दो कमरों के दरवाज़े खोल दिए, साजी का परिचय आदि कराने के बाद वह कमरे से बाहर निकले तो उनके पीछे जाकर मैंने हिसाब पूछना चाहा तो बोले कि.. “नहीं-2 जब जाएंगें तब हो जाएगा इकट्ठा.. मैं न हुआ तो मैनेजर आएगा ही दे देना ऐसी कोई बात नहीं..!” कहकर चलते बने।
हमारे मजे होटल खाली था सिर्फ यही दो कमरे लगे थे और मैनेजर गायब। शाम के सात बज चुके थे मित्रों का कीड़ा कुलबुलाया होगा.. तो मेरे वापस कमरे में आते ही एक ने दरवाज़ा ढ़का, दूसरे ने बोतल निकाली, तीसरे ने खाने का बैग खोला और चौथे ने सीटिंग अरेंजमेंट, यह व्यवस्था इतनी तेजी में हुई कि मैं समझ गया कि मुझे जल की व्यवस्था करनी है क्योंकि यह मित्रों के आचमन का समय है।
मैं कमरे के बाहर निकला ही था कि मेरी नज़र उसी फटेहाल पर पड़ी तो मैंने उसे पानी को कहा वह पाँच मिनट में पानी के दो जग भर लाया। दो घंटे बाद मैं घर चला आया, मित्र लोग खाना आदि भी पैक कर लाए थे।
दूसरे दिन उनका बिनसर, कौसानी, बैजनाथ आदि का कार्यक्रम था और शाम को वापस होटल में मिलने का वादा भी, साथ ही मैने कहा कि वापस जल्द पहुचँने पर वह अपनी महफिल शुरु कर सकते हैं।
दूसरे दिन शाम सात बजे के बाद में जब होटल पहुँचा तो बंद कमरे से आवाजें आ रही थी मैनें बिना औपचारिकता के दरवाजा खोल दिया और देखा कि वही होटल वाला आदमी भी बैठा था, उसकी आँखें चमक रही थी और वह मूछों को ताव भी दे रहा था, एक बार मुझे देखकर वह और भी तन सा गया।
मेरे क्या चल रहा है पूछने पर एक मित्र बोल पड़ा.. “कुछ नहीं ठाकुर साब के साथ कम्पनी चल री..!” मेरे..तो..”फिर मैं चलूँ..!” कहने पर होटल का आदमी खड़ा हो गया और मुझे बैठने का अनुरोध करने लगा.. मैं बैठ गया और वह बाहर चला गया.. तब दूसरे मित्र ने बताया कि.. “कल रात इन्होंने बड़ी सेवा की हमारी..
दरअसल कल महफिल के दौरान पानी आदि ला रहे थे हमने पैग ऑफर किया तो पी गये तब एक और देने पर मूछों में ताव देकर ठाकुर नाम से परिचय दे रहे थे.. बांटने में खाना कम पड़ गया तो बिन कहे देर रात खिचड़ी भी बना लाए.. ऐसी खिचड़ी हमने कभी न खाई पहले.. और आज रात उनकी वही खिचड़ी जम के खाने का प्लान है.. सामान हम लाए हैं.. पर ठाकुर साब हैं बड़े मजेदार आदमी..!” मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी एक ढे़ड़ घंटा मैं बैठा फिर गुडबाय कह चला आया क्योंकि तीसरे दिन कोसी, कटारमल, मजखाली व रानीखेत घूमकर वही से हल्द्वानी निकलने का प्लान था उनका।
अगले दिन मेरे त्रिशूल होटल जाने पर वही फटेहाल मिला और साजी के ऊपर होने की बात कही, साजी से मिलने उनके कमरे जाने पर उन्होनें बिठाया और धीरे से बोले.. मैनेजर आपके दोस्तों की बड़ी तारीफ़ कर रहा था.. मैं बोला पर मैं नहीं मिल पाया आपके उस मैनेजर से.. है क्या यहाँ..? मैंने मिलने की इच्छा दिखाई.. बोले दो मिनट रूकिये देखता हूँ और बाहर निकल गए..
लौटे तो देखा कि मैनेजर तो नहीं वही फटेहाल उनके साथ था, बोले आप नंदू से नहीं मिले.. इनसे तो कई बार मिला साजी.. मैनेजर से नई.. मैं जोर से बोला.. इस पर साजी गम्भीरता से बोले.. तो येई तो है मेरा मैनेजर.. मैं चौंक पड़ा.. ये आपका मैनेजर है..? हाँ मैनेजर क्या ये मेरी अनुपस्थिति में मालिक भी है.. बैरा भी है.. चपरासी भी है.. सफाईवाला भी है और मेरा सब कुछ है..!
मैं फिर क्या कहता (मैनेजर के रूप में किसी वेल ड्रेसेड़, फॉर्मल व्यक्ति की कल्पना नंदू के हुलिये के ठीक विपरीत थी) हिसाब चुकता किया और चला आया । रास्तेभर मुझे उसका हुलिया, साजो सामान, रसोई,मूछों में ताव देना, चमकती आँखें, मैं ठाकुर छूँ.. और.. होय/ना है जाल सैब… कहना सब याद आता रहा। तो यह थी नंदू मैनेजर से दशकों पहले हुई यह दो मुलाकातें।
इसके कुछ वर्षों बाद मैं स्वयं त्रिशूल के पास शिफ्ट हो गया तो साहजी से घनिष्टता हो गई, तो नंदू मैनेजर को और निकट से देखा और जाना कि उसका जैसा ईमानदार, कर्मठ और मेहनती किरदार गिने चुने देखें। चूँकि साहजी स्वयं अविवाहित थे तो नंदू को बहुत मानते और नंदू होटल में एक साथ कई भूमिकाओं में रहता।
कई मायनों में इनकी जोड़ी राम मिलाय जोड़ी… को चरितार्थ करती। ईमानदारी और भरोसे की ऐसी दूसरी टक्कर न थी, यहाँ तक की साहजी के अचानक देहान्त के बाद नंदू उनकी एक-2 चीज़ उनके परिवार को सौंप कर खुद सड़क पर आ गया।
इस नई परिस्थिति के पैदा होते ही नंदू एक होटल के मैनेजर कम मालिक से सीधा बेकारी लिए सड़क पर था और दो चार माह तक यूँ ही हाथ पैर मारने पर उसकी कर्मठता व ईमानदारी ने होटल के आसपास की रिहाइश के कुछ घरों में उसे घर, बाजार, सफाई आदि के काम मिलने लगे और पैसे के साथ कपड़े, लत्ते, खाना आदि की बुनियादि जरूरतें पूरी होने लगी। होते-2 उसे इतने घरों में काम मिल गया कि अब वह रात के 10 बजे अपने गाँव सैनार को जाता, 12बजे सोता और सुबह 4 बजे आपस होटल की ओर आ जाता, जैसे तैसे छोटे बच्चों की परवरिश में उसने 2-4 साल काट लिए।
अब वह हर मंगलवार को 5-7 गैस सिलेंडर भी उन घरों में पहुचाँ देता, तो वह पैसा भी उसे मिल जाता। अब यहाँ से उसके जीवन का एक दूसरा मोड़ शुरु हुआ। अब वह बीढ़ी चूसता हुआ दिखता और शाम होते ही उन घरों में से ही उसे कई घरों में उसे शराब भी मिलने लगी और रात दस बजे तक वह सर पर बोझा लिए धूत्त हो चुका होता और वैसे ही रास्ता लगता और शायद 2 घंटे में घर पहुँचने तक नशा खत्म भी हो जाता।
दुर्भाग्यवश हमारे समाज में ऐसे लोग भी है जो किसी भी प्रकार के श्रम को दारू के पैग से चुकाने में विश्वास रखते हैं जो कि नीचता की पराकाष्ठा है ऐसे लोग अवश्य श्रम करने वाले के बच्चों की बददुवाओं के शिकार होते हैं। ऐसा मेरा मानना है।बहरहाल..।
इस तरह 2-4 साल और कट गए जिस काम में नंदू रम चुका था और बच्चों की परवरिश कर पा रहा था पर उन दिनों वह अपने 3-4 साल के बच्चे को साथ लेकर आता और काम करने वाले घरों में उसे खूब प्यार दुलार के साथ बच्चों के कपड़े, लत्ते, जूते और बाद में यहाँ तक की एक बार साईकिल भी मिल गई।
छोटा बच्चा हरीश उर्फ हरिया तोतली में खूब पहाड़ी भाषा बोलता और प्यारा लगता, शाम को घर जाने तक हरिया सो जाता और नंदू उसे भी अन्य सामान की तरह पीठ मे टाँगकर ले जाता और सुबह सोए में ही टाँगकर ले आता।
इसके बाद एक शाम सूर्यास्त के समय मैंने नंदू को कबाड़, बोतले व गत्ता आदि इकट्ठा करते देखा तो मेरे पूछने पर कि क्या कर रा ये.. तो पहाड़ी में बोला.. “कुछ ना सैब.. कबाड़ इकट्ठा कर रा.. जरा चाय, बीड़ी का खर्च निकल जाएगा..!” अब नंदू बाबू मैनेजर से कबाड़ी की भूमिका में आ गए।
कभी कभार वह मेरा सीलेन्डर व दवा की पेटी ले आता और मैं रुपै के अलावा खाली पेटियां, कार्डबोर्ड व कार्टन आदि दे देता और कुछ माह में नंदू कबाड़ को करीने से लगाना भी सीख गया पर कहीं भी थोड़ी सेफ जगह मिलने पर वहाँ कबाड़ थुपड़ा यानि ढेर लगा देता जो लोगों को नागवार भी गुज़रता।
अब छोटा बच्चा चंट हो गया तो नंदू ने सड़क पर से उठाकर तीन कुत्ते के बच्चे उसके सामने रख दिए जिनके साथ बच्चा दिनभर खेलता व मौज करता, नंदू घर-2 के काम निबटाता, बीच-2 में आकर बच्चों को खाने को देता और रात तक चारों बच्चे सो जाते, नंदू तीन को कहीं पर बाँध कर एक को लादकर घर ले जाता और सुबह ले आता, 2-4 साल फिर ऐसे कट गए नंदू के।
फिर एक शाम सूर्यास्त के वक्त मैंने देखा कि नंदू अपनी इकट्ठी करी शराब की बोतलों से बूँद-2 टपका कर एक पव्वे में इकट्ठा कर रहा था इसका लाभ लेकर आसपास की हवा पीकर बास मार रही थी तो मैं बोला.. “नंदू.. अब ये क्या कर रा है..? नंदू बोला.. के नै सैब इकट्ठा कर रा हूँ ब्याव( शाम) को काम आ जाती मेरे..!”
तब मैंने कहा.. “कबाड़ से चाय, बीड़ी के साथ ये तो तू शराब भी पैदा कर रहा..!” वह हँसने लगा तो मेरे बगल में खड़े एक शौकीन अंकल धवन झट से बोले.. “थोड़ा पानी से खंगाल.. बढ़ जाएगी..!” नंदू बोला.. “नै हो सैब इत्ता टैम किसके पास है..?”
नंदू के पास वाकई समय न होता बावजूद इसके अब वह हर ऐक्सट्रा काम भी कर देता जिसके नकद पैसे मिलते जिसमें शराब सहित अन्य बाज़ार के काम रहते, घरों के लोग नाराज़ रहते पर नंदू कहाँ से कहाँ को चल देता, फिर डाँट खाता पर किसी को मना न करता।
मजेदार बात यह कि वह इकट्ठा की गई शराब उसके काम कभी बमुश्किल आई होगी, होता यह कि 3-4 दिन में भरने वाले पव्वा को अंतिम दिन वह टपका-2 कर भरता और शाम को पीने को छुपा देता, शाम को अलग-2 घर से पीकर आने पर वह छुपाया हुआ पव्वा मिलता ही नहीं और अंत में किसी खाली पव्वे को उठाकर कहता यही वाला भरा था।
दरअसल आसपास का कोई ठेठ शराबी उसकी मेहनत पर नज़र रखता और पव्वा भरने की शाम नंदू के आने से पहल पूरा पव्वा चटकाकर खाली पव्वा वही फेंक जाता जिसे नंदू बाद में पहचानता, पर उस शराबी को वह कभी न पकड़ पाया, इतना सीधा था नंदू कबाड़ी उर्फ ठाकुर सैब..।
देखते-2 हरिया के साथ तीनों बच्चे भी बड़े हो गए और तीनों दिन भर साईकिल में उधम काटते पर अब वह रात बेरात पाँच लोग गुलदार के साये में गाँव को जाते, एक रात गुलदार ने घात लगाकर हमला किया और कुत्ते को निवाला बना लिया बची दो कुतियाऐं सीमा व सोनी, बहुत ही चतुर व समझदार निकली ।
इधर उधर करते नंदू ने अपनी दो पुत्रियों की शादी भी कर दी पर हरिया को चौराहे की ऐसी हवा लगी कि वह हरिया से हैरी हो गया और 12-13 साल की उम्र में उसका दिन का खर्चा ही सैकड़ो में पहुचँ गया और उधारी अलग। हमें फिक्र हुई कि वह बड़े गलत हाथों में खेल रहा और साईकिल में सामान इधर उधर कर रहा था।
पर कई सालों से होली के दिनों में नंदू की हालत न देखने लायक होती, कुछ घरों के मालिक रंगत में एक दो एक दो कर सुबह से इतना पिला देते कि मजबूरन वह घरों के काम करता व रात को गिरता पड़ता अपनी कुतियों के साथ घर वापसी करता।
पिछले बरस इन दिनों बता रहा था कि…”80-85 हज़ार रुपये के नौट गायब हो गये घर से.. जरूरत के लिए रखे ठैरे.. सैब.. घर में..!” उसे पता भी था किसने लिए पर फिर भी उससे कुछ न बोला।
पैसा खर्चने में तो बड़ा कम्चूस ठैरा, पहाड़ी में एक दिन बोला कि.. “सैब.. मुझे सुसराल गाड़ी से जाने में मजाई नी आता.. पत्त नै जाणि क्या बात है..! “मैं बोला.. “अबे इसमें मजा क्या आना है..?”.. तो फिर इशारा करता हुआ बोला.. “नै सैब फिर लै.. मैं आज तक अपने सुसराल कसारदेवी पैदल जाता हूँ चाहे इकेले, बच्चे या पूरा परिवार हो..!” हम सुनकर चकित रह गए।
फिर भयावह कोरोना काल के बाद आई इस बरस की होली, नंदू मैनेजर कम कबाड़ी कोरोना काल में सुरक्षित बचा रहा। होली में ही एक दो दिन मिला सुबह से पिया हुआ,आँखे चमकाता, बीड़ी चूसता और उगंलियों से बुझाकर पहाड़ी टोपी में फँसाता और फिर ताव देकर ‘ठाकुर सैब’ वाली मूँछें खड़ी करने की नाकाम कोशिशें करता हुआ..।
इधर होली बीते 3-4 दिन हो चुके थे कबाड़ का सामान इधर उधर फैला था.. मैनें चाय वाले से नंदू के फैले सामान की बात की तो प्रेम बोला.. “नंदू चल दिया..!” मैं पूछा.. “क्यों कहाँ चल दिया..?” तो प्रेम बोला.. छलड़ी से एक दिन पहले दिनभर दारू मिलती रही.. शाम को साढ़े सात बजे मेरे यहाँ बर्तन धोए.. रात साढ़े नौ बजे तक दिखा.. फिर घर जाने से ठीक पहले.. झूमते हुए पंचायत बिल्डिंग के अंतिम घर से.. तीन मंजिल की संकरी सीढ़ीयों में उतरते समय.. नस्से से… बैलेन्स बिगड़ा और गिरता हुआ नीचे आ गया..सर में चोट आई होगी.. उठ नहीं पाया.. नस्से से आवाज भी नहीं निकली.. किसी ने देखा नहीं रात में..पड़े-2 ही मर पड़ा.. सुबह मिला.. घर में ख़बर की.. गाँव वाले आए और उठाकर ले गए..!” सुनकर मैं आवाक् रह गया..।
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