यूँ तो दोस्तों इस फ़ानी दुनिया में हर इंसान के दिलो दिमाग में कई तरह के विचार आना लाज़मी है क्योंकि वैज्ञानिक रूप से वह जानवर की श्रेणी से ऊपर है,जहां किसी चौपाऐ में दिल, दिमाग और पेट ज़मीन के समानांतर मिलेंगें वहीं इंसान में सबसे ऊपर दिमाग, फिर दिल और फिर पेट ज़मीन के वर्टिकल रूप में मिलेंगें। और फिर यह विचार फैलते हैं आपसी संवाद से या फिर लिखित रूप में। अब इसमें भी यह कि कोई इंसान खुलकर अपने दिमाग में आई हुई बातें अपनों या दोस्तों के बीच रखता है तो कोई दिल की बात किसी से न कह ताउम्र कई बातें अपने मन ही में रख लेता है। खुद मेरा हाल यह कि मैं एक समय में एक साथ तीन/चार साथियों तक के बीच अपनी बाते खूब अच्छी से शेयर कर सकता हूँ पर जैसे ही यह संख्या बढ़ जाय तो मैं इसमें असहज हो जाता हूँ, और ज्यादा सुनने व आब्जर्व करने के मोड में आ जाता हूँ। बहरहाल..।
आज हम अल्मोड़ा के एक ज़हीन शख़्स के बारे में बात करने वाले हैं जिसनें बरसों बरस इक कैफ़े के ज़रिए लोगों को अपनी सेवा दी है। और बड़े ही सब्र से अपने अच्छे दिनों का इंतज़ार किया। यही नहीं इस शख़्स नें उस दरम्यान ऊपर लिखी गई भूमिका के अनुसार हमेशा अपने दिल के जज़्बात अपने दिल में दफ़्न रखे और निहायत ही एक गुमनाम सी जिन्दगी न चाहते हुए भी जीने को मज़बूर हुआ।
वही नब्बे का दशक और अल्मोड़ा शहर का धुर दक्षिण कोना जिसे सारा शहर ‘ब्राइट एंड कॉर्नर‘ के नाम से जानता है न सिर्फ इसलिए की इस जगह से दिन के सूर्यास्त की अंतिम लेकिन बेहतरीन किरणें विदा लेती है बल्कि इसलिए भी कि इसी कोने पर किसी ज़माने से एक ‘ब्राइट एंड कॉर्नर स्टेट’ हुआ करती थी।
यही नहीं बरस 1956 तक अल्मोड़ा शहर की दक्खिन सीमा इस स्टेट पर आकर ख़त्म हो जाती थी और ठीक इसी जगह से नैनीताल, हल्द्वानी आदि की तरफ पैदल रास्ता शुरु होता।
इसके बाद बरस 56 से खैरना तक करीब तीस मील की मोटर रोड बनने में छह साल का वक्फा लगा तब तक अल्मोड़ा का सफ़र वाया खैरना–रानीखेत चला करता था। बरस 62 से अल्मोड़ा–खैरना का सफ़र शुरु हो चला जिसे हम आज छिन्न-भिन्न हालत में देख रहे है।
अल्मोड़ा शहर के जानकर बाशिन्दे बताते हैं कि तब उक्त स्टेट में साल भर के तमाम मौसमों में अक्सर ‘नवाब ऑफ़ वज़ीराबाद‘ सपरिवार आकर रूका करते थे और फिर उसके बाद पीडबलडी (पीडब्ल्यूडी का निक नेम) का आरामघर बना और फिर स्वामी विवेकानन्द समर्पित वैलूरमठ स्थित रामक्रष्ण कुटीर की शाखा खुली।
अब शुरु होती है मेरी किशोर जीवन यात्रा जब मैं विवेकानंद से प्रभावित होकर उन्हें जानने आश्रम जाने लगा और तब जाना शहर के इस दक्षिणी कोने की अदभुद अहमियत खा़सकर विदेशी और बंगाली मेहमानों की नज़र से।
हालांकि तब मेरी नज़र ‘ब्राइट एंड कॉर्नर स्टेट’ पर उस तौर पर नहीं पड़ी जैसी बाद के दिनों में पड़ी जबकि उन दिनों वहां इसके अलावा गेस्ट हाउस, आश्रम के अलावा दाएं हाथ पर सड़क से लगी पतली पर लम्बी विवेकानंद वाटिका जिसमें खूबसूरत फूलों के अलावा पूरे पार्क में पुष्पलताऐं और बेलें फैली रहती और बीच में बेंच लोगों के बैठने को लगी होती।
इन बेंचों में विदेशी व बंगाली सैलानी बैठकर सूर्यास्त का मजा लेते और वाटिका और उसके आसपास का माहौल लोगों से गुलज़ार रहता खासकर शाम का समय।ऐसा लगता वह वाटिका ‘सूर्यास्त का केंद्रबिंदु‘ हुआ करती थी।
सालों बाद समझ आया कि दरअसल सैलानियों के अलावा हमें सूर्यास्त की तमीज़ न थी और यह समझ और पुख़्ता हुई जब सौंदरीकरण के नाम पर उसके नीचे गड्डे में उससे कई गुना बड़ा विशाल मूर्ति वाला मानवरहित कांक्रीट पार्क बनाया गया और उस प्राकर्तिक पार्क को नेस्तनाबूद कर दिया गया पर शहरभर से विरोध की कोई आवाज़ न आई।
हाँ तब हमने अपने युवा संगठन डिफ्फी की ओर से इसका विरोध जरूर किया पर नगरपालिका और पीडब्ल्यूडी ने एक दूजे के ऊपर आरोप लगाया और उसे बनाने का आश्वासन ज़रूर दिया पर उजाड़ तो पहले ही मिलीभगत से तय हो चुका था।शायद तब देव-बोगेन की मुहब्बत पर ऑनलाइन डाढ् मारने वाली पीढ़ी जैसा ज़रिया न था। बहरहाल..।
उसके कुछ साल बाद पहली बार कुछ दोस्तों के साथ गया तो एक लम्बा चौड़ा, गोरा फ़नार, दाड़ी व घुंघराले बालों वाला संजीदा शख़्स स्टेट के कुछ खंडहरनुमा इमारत के इक कमरे के कोने में रसोई में बड़ी तल्लीनता से कुछ बना रहा था कमरे में दो तीन लड़के पहले ही मौजूद थे लिहाजा हम बाहर आकर बैठ गए।
बाहर बैठकर एक निगाह फिर इमारत की तरफ़ डाली तो उसी कमरे के आगे एक छोटा कमरा और देखा जिसकी लम्बी चौड़ी खिड़की पर एक छोटी कैफे़ लिखी प्लेट झूल रही थी। गौरतलब था कि हमेशा से कैफ़े सिर्फ़ शाम के वक्त ही खुलता।
तब कैफ़े कुछ ख़ास सा तो न लगा पर मिर्ज़ा साब को पहचानने लगा और कई बार सनसैट देखने के बहाने वहां जाता या उन्हें देख लेता। वह किसी से कोई मतलब रखते न थे और अपने काम में मगन रहते। यहां तक की दुआ सलाम भी किसी से न थी।
उसके बाद एक लम्बे समय तक शहर से दूर रहने पर उसे भूल सा गया हालांकि ब्राइट एंड कॉर्नर की यादें बनी रहीं और शहर में आने पर सूर्यास्त देखना तब भी प्रिय शगल हुआ करता।
बरस 97 के बाद वापस आने के बाद फिर मिर्ज़ा साब के कैफ़े में जाने का सिलसिला शुरु हुआ और उसके बाद आस पास के सीढ़ीनुमा खेतों में भी टेबल-कुर्सियां और उन्हें ढकती हुई बड़ी छाताऐं मिली। और हाँ अब कैफ़े वाली प्लेट खिड़की के ऊपर फिक्स थी और कुछ तार ऐरियल से आकर रेडियो पर एफ़एम बजा रहे थे।
इसके साथ ही मिर्ज़ा साब अब भी एकदम शांत से अपने में खोए हुए से आर्डर पूरे करते हुए मिलते। ज्यादा किसी से बात नहीं और किसी अपने मन के भावों के अनुसार चाय, कॉफ़ी, बर्गर वगैरह-2 बनाते दिखते।
अब ऑर्डर का यह आलम होता कि कम से कम आधा घंटा लगता और अगर गलती से पेट से भूखी प्रेमिका अपने प्रेमी के साथ पहुंच जाय तो खाने के इंतजार में प्रेमी पर कहर बनकर टूट पड़े। वहीं प्रेमिका अगर प्रेम की भूखी हो तो प्रेमी इस जनम तो क्या अगले दो जन्मों के सब्ज़बाग उसकी नज्र कर दे पर मिर्ज़ा साब ऑर्डर अपने समय से ही लाते।
गलती से मैं शादी के बाद लेकर चला गया दुबारा कभी हिम्मत न हुई। टरकाने वाली कोई डील हो तो वहां जाकर आसानी से खुर्द बुर्द की जा सकती थी। कुल जमा यह कि किसी प्रक्रति प्रेमी, आवारगी और दूसरे अफ़्सानों के लिए बेहतरीन जगह।
इसके बाद के सालों में मिर्जा साब को जानने की उत्सुकता होना लाज़िमी था पर दिक्कत यह थी वह बड़े एकाकी तबीयत के निहायत कम बोलने वाले, अपने करीब न आने देने वाले और गम्भीर तरह के और बेहद अंतर्मुखी किस्म के मूडी इंसान लगते।
फिर भी अब हम उन्हें तो जानने लगे ही थे तो गौर करने पर लगा कि मिर्जा साब की दिनचर्या दोपहर से शुरु होती जब वह अपनी आरएक्स 100 पर कैफे का कच्चा सामान लेने निकलते थे। कतई नीली आंखे, सुर्ख उजला चेहरा हेलमेट के अंदर से झांकता और पतली लम्बी टागें बाइक का सन्तुलन बनाती हुई दिखती।
फिर यह भी पता चला कि मिर्जा साब दरअसल ईरानी मूल के भारतीय शिया मुस्लिम जो लखनऊ के आसपास की किसी रियासती ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे, अपनी इस ख़ानदानी इमारत का केस लड़ रहे थे और उसी इमारत के पिछले भाग में सपरिवार रहते हैं जिसे शहर में कुछ लोग ‘शत्रु सम्पत्ति’ तक कहते थे।
बाद के सालों में पता चला कि मिर्जा साब की शादी भी हुई चाहे देर से ही सही और बिटिया के बाद जुड़वा बेटे भी पैदा हुए और हमसफ़र उनकी बड़ी मिलनसार, गम्भीर और बेहद पढ़ी लिखी सभ्य ख़ातून रही। यह पता चला जब मेरी हमसफ़र नें उन बच्चों को स्कूल में पढ़ाया जो पूरे स्कूल में अपनी अलग तहजीब व नक्श से पहचाने जाते।
इसके बाद कोरोना काल आया और सबको अपनी-2 फि़क्र कौन किसे देख रहा था लिहाजा बरस 20 व 21 भेंट चढ़ गया, इस आपाधापी में हम भी मिर्ज़ा साब को भूल गये।
बरस 21 का ही नवम्बर का महीना था अफरातफ़री कुछ थमी ही थी कि अचानक एक शाम मिर्ज़ा साब ने मेरे चैम्बर के दरवाज़े पर दस्तक दी और अंदर आने की इजाज़त माँगी।
चेहरे पर मास्क के बावज़ूद मैनें पहचाना और उनकी अगवानी करते हुए सलाम पेश किया और तशरीफ़ रखने की गुज़ारिश करते हुए हालचाल पूछकर कैफ़े के बावत कुछ सवाल पूछे और उनके आने का सबब पूछा।
मेरे चेहरे पर भी मास्क चढ़ा था लिहाजा न पहचानते हुए उन्हें मेरे सवाल चकित कर रहे थे पर जवाब सभी दे रहे थे। यह भी पता चला कि उनके किसी जानने वाले ने मेरे पास तबीयत को लेकर कुछ सलाह के भेजा था।
इसके बाद दो तीन माह तक कभी कभार उनका आना जाना रहा मेरे पास और उनसे मुखातिब होने का मौका मिला हालांकि मैनें कभी निजी सवाल या शिकायत कभी नहीं रखी उनके सामने कि वह हमेशा इतने गम्भीर क्यों रहे? यह हिम्मत अब भी न हुई।
यह तो उनकी निजी दिक्कतें ऐसी थी कि उनके मन की बात मुझे सुननी लाजिमी थी कि वह उनका इलाज़ चाहते थे और मेरे मना करने पर भी वह उम्मीदें बाधें रहते मुझसे, पर में लाचार था और जिद् करने पर कभी कुछ दे दिया करता।
उसी दरम्यान उन्होंने अपनी उसी संजीदगी से बताया कि बीवी बच्चे पहले ही लखनऊ वापस जा चुके हैं और उनके मन में बार-2 वह ख्याल आता जो मुझे अक्सर कहते कि.. “साहब मैं इस खानदानी विरासत की दो /तीन तारीख़ के लिए लखनऊ में सब कुछ छोड़ के आया था और आज मुझे तीन दो यानि बत्तीस साल से ज्यादा हो गए और फ़ैसला होना अभी तक बाकीं हैं..!”
उनके यह शब्द सुनकर मेरे मन में भी टीस उठती कि कोई सिस्टम कैसे किसी की पूरी ज़िन्दगी न्याय की आस में छीन सकता है कि आदमी हँसना, मुस्कुराना सहित सभी लम्हात भूल बैठे और इस भागमभाग में घुलकर रोगी बन जाय। ज़िन्दगी की कीमत पर ऐसी ज़िन्दगी कभी किसी को न मिले।
इसके बाद पिछले ही साल खबर मिली कि मिर्ज़ा साब केस जीतने के साथ ही अल्मोड़ा छोड़ गये। खबर देने वाले ने बताया कि सम्पत्ति करोड़ों में बिकी है तों मैनें मन में सोचा कि कीमत बहुत कम है कि किसी आदमी को ताउम्र मलाल रहे कि इसके लिए उसने अपनी पूरी ज़िन्दगी लगा दी। बहरहाल..।
मिर्ज़ा साब अपने बच्चों के साथ अपने बचपन के घर लखनऊ पहुँच चुके हैं उम्मीद यही है कि अपनी जज़्बाती तकलीफ़ो से निजात पाऐ,खुश रहेंं और बाक़ी बची हुई ज़िन्दगी अपने बच्चों संग भरपूर जिऐं। हमें रोज और दोस्तों को अल्मोड़ा आगमन पर सबसे पहले उनकी याद आना लाजिमी है जिन्होंने उन्हें देखा और उनकी सेवा ली है। खुशामदीद..!
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