अल्मोड़ा और उत्तराखंड के लोग देवभूमि में होने कारण अत्यंत सौभाग्यशाली हैं। अनेकों उच्च उपलब्धि प्राप्त संतों, महात्माओं ने इस भूमि को अपने चरण धूलि से पवित्र किया हैं और अपनी तपोभूमि के रूप में पर्वतीय भूभाग को चुना है। उनका प्रकाश आज भी इस क्षेत्र को पुलकित कर रहा है।
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महान संत लाहिड़ी महाशय और उनके गुरु महावतार बाबा का अद्भभूत प्रसंग – पूरी मानवजाति के लिए पवित्र धरोहर है। लाहिड़ी महाशय उनका जन्म पश्चिम बंगाल में नदिया जिले में 30 सितंबर, 1828 को हुआ। पूरा नाम – श्यामाचरण लाहिड़ी हैं, अठारह वर्ष की उम्र में साल 1846 में उनका विवाह हुआ। तैंतीस वर्ष की आयु तक, लाहिड़ी महाशय एक गृहस्थ के रूप में एक साधारण सांसारिक जीवन जिए।
दानापुर में सेना में अकाउंटेंट के पद पर कार्यरत थे। 1869 में उन्हें सुचना मिली कि – उनका स्थानांतरण अल्मोड़ा जिले में रानीखेत में हो गया. – जहाँ सेना का नया कैंप स्थापित किया जा रहा था।
एक सेवक के साथ, घोड़े और बग्घी से यात्रा करते हुए दानापुर से रानीखेत तक लगभग 500 मील की दुरी तय करने में 30 दिन का समय लगा। हैं। आज से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व- दिव्य पुरुष महान संत लाहड़ी महाशय – रानीखेत, आये थे।
रानीखेत में लाहिड़ी महाशय के पास – करने के बहुत कार्य नहीं थे। तो वो खाली समय में पहाड़ियों की सुन्दर वादियों में सैर के लिए निकल पड़ते। उन्होंने यह भी सुना था कि – इस उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बड़े – बड़े संत निवास करते हैं, लाहिड़ी महाशय को संतों से मिलने की इच्छा थी।
एक दोपहर रानीखेत की पहाड़ियों में सैर करते हुए उनको उन्हें लगा – जैसे कोई उनका नाम लेकर पुकार रहा हैं। कौतूहलवश वो आवाज की दिशा में द्रोणागिरी पर्वत की और बढ़ते रहे। इस बात से भी चिंतित थे किं कहीं उन्हें लौटने से पहले अँधेरा न हो जाए।
चलते हुए वो एक खुली जगह पर पहुंचे – जिसके दोनों और गुफा थी। वहां अपनी तरह दिखने वाले एक युवक के को उनके स्वागत में खड़े देख – वो आश्चर्य में पड़ गए। युवक ने बताया कि – उन्होंने ही लाहिड़ी महाशय को पुकारा था। स्वागत में खड़े युवा संत – परम सिद्ध महावतार बाबा थे। जिनके बारें में कहा जाता हैं, वो आज भी जीवित हैं और एक जगह ज्यादा देर नहीं रहते, कई पवित्र और सिद्ध महापुरुषों को आज उनके दर्शन का सौभाग्य मिलता रहता है।
लाहड़ी महाशय को उन्होंने एक गुफा में विश्राम करने को कहा – लाहड़ी तुम्हे वो आसान याद हैं? महावतार बाबा ने कोने पर परे कम्बल की और इशारा करते हुए कहा।
नहीं महाराज, – लाहड़ी महाशय अपनी इस विचित्र साहसिक यात्रा पर हतप्रभ हो बोले।
महाराज – मुझे अँधेरा होने से पहले निकलना होगा – सुबह ऑफिस में काम हैं।
लाहिड़ी महाशय के लिए उस समय तक रहस्मय संत ने अंग्रेजी में उत्तर दिया – The office is brought for you, and not you for the office (ऑफिस तुम्हारे लिए लाया गया हैं, तुम ऑफिस के लिए नहीं)
निर्जन वन में एक सन्यासी से ऐसे शब्द सुन लाहिड़ी महाशय आवक रह गए।
संत ने आगे बताया कि लाहिड़ी महाशय के रानीखेत स्थानांतरण के लिए – उन्होंने ही सेना के अधिकारी के मन को यहाँ कैंप लाने और उनके स्थानांतरण का सुझाव दिया था।
रानीखेत छावनी की स्थापना सर्वप्रथम – महावतार बाबा की इच्छाशक्ति/चमत्कार से ही रानीखेत में स्थापित की गयी, जिसके पीछे उनका उद्देश्य – लाहिड़ी महाशय को अपने पास बुलाना था।
संत ने कहा कि यह जगह – उन्हें परिचित लग रही होगी! कर इसके बाद – लाहिड़ी महाशय के माथे को स्पर्श किया, तो उनकी पूर्व जन्म की स्मृतियां जाग उठी।
उन्हें याद आया कि ये संत उनके पूर्व जन्म के गुरु – महावतार बाबा हैं। उन्हें याद आया किं पूर्व जन्म में इसी गुफा में – उन्होंने कई वर्ष बिताये थे। पूर्व जन्म की मधुर और पवित्र स्मृतियों से वो भाव विव्हल हो उठे।
उस रात लाहड़ी महाशय के पूर्व जन्म के कर्मों के बंधन से मुक्ति के लिए महावतार बाबा ने उस जंगल में अपनी योग शक्ति से एक सवर्णों और रत्नो से प्रकाशित महल एक निर्माण कराया, जो लाहिड़ी महाशय के पूर्व जन्म में जगी इच्छा थी। हिन्दू मान्यता हैं – किं – जब तक मनुष्य में कामना और इच्छा शेष हैं – उसका जन्म होता रहेगा, पूर्व जन्म की अधूरी इच्छा – उसके अगले जन्म में उसके अवचेतन मन के अंदर रहती है। लाहिड़ी महाशय का स्वर्ण महल से मोह भग हो जाने पर वह महल अदृश्य गया। दिव्य पुरुषों के लिए किसी भी वस्तु की कल्पना और उसकी शृष्टि में में कोई अंतर नहीं होता।
पूर्व जन्म के की अनुभूतियों का बोध, महावतार बाबा से प्राप्त ज्ञान और उनकी कृपा से अगले सात दिन लाहिड़ी महाशय निर्विकल्प समाधि में लींन रहे।
आत्म ज्ञान के अनेकों स्तरोँ को पार कर आठवे दिवस – लाहिड़ी महाशय ने उसी वन में बाबाजी के साथ हमेशा के लिए रहने की इच्छा प्रकट की।
बाबाजी ने उन्हें बताया – कि उनके इस जन्म का उद्देश्य सामान्य मानवों के बीच रहकर अपनी भूमिका निभानी हैं। उनका इस बात के पीछे गहरा उद्देश्य था कि लाहिड़ी महाशय को गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के बाद ही बाबाजी से मिल पाए।
गृहस्थ योगी के रुप में उन्हें – संसारी लोगो के मध्य रह उन्हें सांत्वना देनी होगी कि – गृहस्थ भी ब्रह्म की उपलब्धि कर सकते हैं।
जिससे पारिवारिक बंधन में बंधे, सांसारिक कर्तव्यों से दबे, अनेकों लोगो को – बिना सांसारिक बंधन तोड़े – ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए हिम्मत और प्रेरणा मिलेगी।
महावतार बाबा ने उन्हें यह भी वचन दिया कि जब भी लाहिड़ी महाशय आव्हान करेंगे – बाबाजी उनके आगे प्रकट हो जायेगे। बाद में कई अवसरों में बाबाजी उन्हें दर्शन देते रहे हैं।
उन्होंने भगवत गीता के इस अमर वचन को अपने सभी शिष्यों को बताने को कहा।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात – अर्थात – इस धर्म का थोड़ी सी भी साधना बड़े से बड़े भय से रक्षा करता हैं।
बाबाजी के आदेश से लाहिड़ी महाशय द्वाराहाट के द्रोणागिरी की पहड़ियों से नीचे उतरे, द्वाराहाट के निकट वर्तमान में योगदा सोसाइटी द्वारा स्थापित आश्रम भी हैं, जिसमे प्रतिवर्ष अनेकों श्रदालु और अनुयायी इस पुण्यभूमि के दर्शन के आकर धन्य होते हैं।
लाहड़ी महाशय 10 दिन के बाद जब अपने कार्यालय पहुंचे तो उनके सहयोगी प्रसन्न हो उठे, उन्हें लगा था, कि लाहड़ी महाशय हिमालय के इन जंगलो में खो गए हैं। इसके शीघ्र बाद – मुख्यालय से एक पत्र आया जिसमे लिखा था – लाहिड़ी को वापस दानापुर लौट जाना चाहिए, उनका रानीखेत स्थानांतरण गलती से हुआ। लाहिड़ी महाशय का रानीखेत आने का उद्देश्य पूर्ण हुआ।
लाहिड़ी महाशय से जुड़ा वीडियो देखें।
https://youtu.be/5W3R1MeIu9Y
लाहिड़ी महाशय और महावतार बाबा के महान जीवन के बारे में बारे में अधिक जानने की जिज्ञासा हो तो उनसे जुडी पुस्तके पढ़ सकते हैं।
इस प्रसंग को हमने परमहंस योगानंद जी की पुस्तक – योगी कथामृत से लेकर सम्पादित किया हैं।
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