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Almora Online | Explore Almora - Travel, Culture, People, Business > Blog > Contributors > Almora > वाह उस्ताद… सईद साब…
AlmoraContributors

वाह उस्ताद… सईद साब…

Sushil Tewari
1 year ago
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Saab
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यूँ तो दोस्तों, वक़्ती तौर पर अल्मोड़ा नगर को एक कौमी एकता के प्रतीक के रूप में जाना जाता है जहाँ से एक से बढ़कर एक प्रतिभाएँ विकसित हुईं और एक से बढ़कर एक कलाकार पैदा हुए। यही नहीं, दशहरा और मोहर्रम में परस्पर भागीदारी ने इन मौकों को मुक़द्दस और आलीशान त्यौहारों के रूप में स्थापित करने में ख़ास भूमिका निभाई।

 

आज बात एक ऐसे ही परिवार की जो बीसवीं सदी के पहले दशक में मुरादाबाद से विस्थापित होकर अल्मोड़ा चला आया। परिवार के मुखिया मरहूम आशिक़ हुसैन साब में हौसलों के साथ हाथों का भी हुनर था। घड़ीसाजी और दंतकारी के आला दर्जे के ऐसे जानकार जिन्होंने अल्मोड़ा आकर बाज़ार से कचहरी को जोड़ने वाले सिरे पर अपना हुनर जनता के सामने पेश किया। जनता ने हाथों हाथ लिया और हुसैन साब का काम चल पड़ा। बरसों बरस घड़ीसाजी और दंतकारी से जनता की खिदमत के बाद हुसैन साब अल्मोड़ा और उसके आसपास काफी मशहूर हो गए और उस बीच उनका परिवार भी बढ़ चला। बावजूद इसके परिवार के आठ बच्चों ने उर्दू, अरबी, हिन्दी और अंग्रेजी आदि की तालीम पाई और पिता के कामधंधे में हाथ बँटा इसी हुनर को तराशते रहे। पर हुसैन साब ने सबसे छोटे बेटे को चित्रकारी के प्रति उसके रुझांन को देखते हुए आर्ट कॉलेज में दाखिल किया।

 

अब इन छह भाईयों और दो बहनों में सबसे बड़े भाई सुलेमान साब ने पिता से विरासत में मिली दंतकारी के साथ चश्मेकारी का काम स्थानीय चौघानपाटा में भी शुरु किया जिन्हें स्थानीय लोग इन कामों के साथ मशीनों और उनके पुर्जो आदि का भी बेहतरीन जानकार मानते थे। इनसे छोटे दो भाई बंटवारे के दौरान पाकिस्तान जा बसे थे। इनसे छोटे भाई अजीज़ साब ने घड़ीसाजी, विशेषकर ऐंटीक यांत्रिक घड़ियों में बेहतरीन नाम कमाया और पिता की पूर्व में खोली गयी ‘आशिक़ हुसैन एंड संस‘ दुकान में ताउम्र मशग़ूल रहे।

 

इनसे छोटे भाई सईद साब ने घड़ीसाजी, चश्मेकारी के साथ मुरादाबाद के पीतल की बेहतरीन कलात्मक चीज़ों का काम शुरु किया अपनी ही पुश्तैनी दुकान के पास। और आज इन्हीं साब की बात मैं अपने इस संस्मरण में करने वाला हूँ। फिर इनसे यानि सबसे छोटे भाई यानि जिन्हें आर्ट स्कूल में दाखिल किया गया था, कला के क्षेत्र में बेहतरीन नाम कमाया। दीगर बात कि ताउम्र दिखावे, नाम, शोहरत आदि से दूर रहकर कला को ‘स्वान्त् सुखाय‘ तक सीमित रखा। और यह थे महान चित्रकार मो० सलीम साब जिन्होंने अभी हाल ही में इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कहा, पर जिनकी रूहानी शख़्सियत ताउम्र उन्हें जानने वालों पर तारी रहेगी। लोग बताते हैं कि सबसे बड़े भाई सुलेमान साब भी इसी तरह के नेकदिल ख़्यालात रहे यानि दुनियादारी से कुछ ख़ास लेनादेना न रहा था। और यही गुण उनके छोटे भाई सलीम साब में विनम्रता के रूप में वाबस्ता रहा और अगली पीढ़ी में यह गुण उनके छोटे बेटे आसिफ़ में भी मौजूद रहा जो एक मशहूर डेंटल सर्जन के रूप में सरकारी हस्पताल के बाद आज उसी जगह पर मशरूफ हैं।

पर यह बात भी सच है कि दंतकारी के उस हुनर में उनके बड़े बेटे नाज़िम ने जो मुकाम पाया वह किसी बड़ी कलाकारी से कम नहीं है। जिन्हें देखकर उनके मरहूम दादा और पिता उन पर नाज़ कर सकते हैं। वहीं, इसके बाद वाली पीढ़ी को अपना मकाम पाना अभी बाक़ी है। । कुछ इसी तरह की मिली जुली शख़्सियत के मालिक थे मरहूम सलीम साब से बड़े उनके भाई मरहूम सईद साब जो कि मेरे उस्ताद, हमनावज़, दोस्त रहे व दुनिया के लिए इक बेहतरीन इंसान, शायरी व मौसिक़ी समझने व गाने वाले, अपने जमाने के पहलवान, धड़ीसाजी व चश्मेकारी के बेहतरीन कारीगर व टैक्नीशियन, ग़ज़ल व फ़ारसी/अरबी कहने व समझने वाले और भजन व होली के रसिक। दरअसल सईद साब मेरे पिता को जाननेवाले थे और इत्तेफ़ाकन अपनी दुकान ‘मिलियंस् टिकटिक एन कलेक्शन‘ में मेरे एंटीक घड़ियों के प्यार व उनकी देखरेख के लिए उनके पास जाने के दौरान उनकी संजीदगी, तहज़ीब, ईमानदार व कारीगरी ने मुझे अपनी ओर खींचा।

 

वही शायद बरस 97-98 का दौर रहा होगा जब मैं वापस घर आकर अपना कामधंधा शुरू कर चुका था। तब एक शाम उन्होंने मेरे उनकी दुकान के पास से गुजरने पर अपनी मोहतरमा की तबीयत नासाज़ होने और चलकर देखने की गुजारिश की। मैं वहां गया तो उनका बीपी बड़ा हुआ पाया। उस दिन से जो उनके परिवार से जो ताल्लुकात बने तो बस फिर बनते चले गए। अब उनकी दुकान पर शाम लौटते समय अक्सर दस्तक देता तो सईद साब काम करते हुए आँख से आईग्लास हटाकर बड़ी गर्मजोशी से स्वागत करते और बैठने का इशारा करते और वापस ग्लास आँख में दबाकर काम करते हुए बातें करते।

 

इन्हीं दिनों मुझसे अलग-अलग जानकारी के साथ मेरी उम्र आदि पूछ डालने के बाद एक शाम वो झिझकते हुए मेरी तरफ गीले कपड़े में लिपटी हुई कोई चीज़ और कैमरे के रोल वाले दो डिब्बे खिसकाते हुए मेरी आँखों में देखते हुए बोले, “शौक़ फरमाईएगा!”

 

अब मेरे पूर्वाग्रहों और धारणा के बीच डोलता हुआ मैं अनसुना करते हुए चुप रहा। तो वह फिर बोले, “पान लीजिएगा!”

 

शंका और संकोच से भरकर मैंने वह गीला कपड़ा खोला जो कत्थे से बदरंग हो चुका था और चूना-कत्था लगा एक पान का तैयार पत्ता निकाल लिया। तैयार पत्ते का कुछ करने से पहले ही वो बिना मेरी तरफ़ देखकर बोले, “एक डिब्बे में छाली और दूसरे में सादा तम्बाकू है!”

 

मैंने सुपारी के दो-चार टुकड़े पत्ते में रखकर मुंह में रख लिया और चुपचाप थूकने या निगलने के बारे में सोचने लगा। चुप्पी ज़्यादा लम्बी होने पर उन्होंने काम करते हुए सर मेरी तरफ उठाया और आँख से अचानक ग्लास छोड़ व हथेली में लपकते हुए बोले, “आप अचानक चुप हो गए.. क्या बात है?”

 

यह बात अचानक और इतनी तेज़ी से हुई कि मैं हड़बड़ाहट में मुंह में इकट्ठा पान के रस को गटक गया जिसे सोचा था कि इसे पीक बनाऊंगा। पर अब भी सब कुछ सामान्य था और इससे अच्छा यह हुआ कि मैं सारी शंका और संकोच को इसके साथ गटक गया था और बात करते शाम यूँ ही गुज़र गई।

 

इस तरह अब वह रोज़ मेरे जाने पर पान वाला गीला कपड़ा, छाली और तम्बाकू के डिब्बे मेरी तरफ शतरंज की गोट की तरह खिसकाते और मैं तम्बाकू में नज़र डाल केवल छाली से काम चला लेता और यह कई दिन चलता रहा।

एक शाम पान पेश कर और मेरे खाने के बाद पूछें कि क्या मैंने कभी तम्बाकू खाया है? जवाब में मैं न सुनने का बहाना कर मन में दिया जा सकने वाला उत्तर सोचने लगा। जबकि तम्बाकू क्या मैं बूटी छोड़ बाकी चख चुका था। उनके दोहराने पर “उँ..उँ..” कर मैंने दोस्तों के साथ जोड़कर ‘गोवा 1000’ गुटखा चखने की बात कह दी तो वह गम्भीर होकर गुटखा न खाने की सलाह पर उतर आए और उसके नुकसान गिनाने लगे।

 
मैं चुपचाप सुनता रहा। क्या कहता कि मैं अपनी ड्यूटी के दौरान पान नहीं खा सकता, इसलिए सुबह एक गोवा खरीदता हूँ और उसे दवा की तरह सुबह, दिन और शाम तीन समय घर से बाहर खा लेता हूँ। पर इसके बाद उन्होंने सादे तम्बाकू पर जो ज्ञान दिया, उसके असर से अगले सोलह बरस दबा के पान काटे। फिर भी हर शाम वो यूँ ही वह पान आगे खिसका देते और फिर भी मैं चुपचाप यूँ ही तम्बाकू को निहारता, छाली वाला पान खा लेता, पर उनके सामने तम्बाकू वाला पान खाने की हिम्मत, सम्मान या पता नहीं क्यों न कर सका।

 

एक दिन यह हुआ कि शायद सईद साब के पास पान खत्म हो गए थे या नहीं थे, मेरे वहाँ पहुँचने पर वह काम छोड़कर यह कहते हुए उठने लगे कि मैं पान लाता हूँ बगल से …आप तशरीफ रखिए..! तो मैं जबरन उन्हें बैठा खुद चला गया। पर वहाँ मैंने दो सादे तम्बाकू के पान बनवाए, एक अपने मुँह में डाला और फिर दूसरा लपटवा ले जाकर उनके सामने काउंटर पर रख दिया। मेरे ‘यह लीजिए..!’ कहने पर उन्होंने मय आई ग्लास के दोनों आँखों से मुझे देखते हुए पान मुँह के हवाले व कागज़ मसलकर बाज़ार की ओर उछाल दिया।

कुछ देर औपचारिक बात करने के दौरान अचानक रोज़ की तरह मैंने गलती से तम्बाकू वाले पान का रस भी पी लिया और जोर-ज़ोर से हिचकियाँ करने लगा। और ज्यादा हिचकियाँ लेने पर सईद साब बोले.. “जनाब..आपको तम्बाकू लग गया है आप इसे थूक लें..” कहते हुए गली की तरफ इशारा किया। गली तक

 

पहुँचते हालत खराब थी फिर जैसे तैसे गला मुँह साफ किया पर अब चेहरे पर ताप और सर चरकराने का आभास हुआ तो मैं तुरंत वापस लौट उनके पास बैठ गया।

उसी वक्त सईद साब पानी पेश कर बोले..”आमाँ..बड़े छुपे रुस्तम निकले आप.. पर जब मैंने आपके हाथ का पान खाया तो उसी वक्त आपका चेहरा देखकर समझ गया था कि आज आपके असली शौक फ़रमा लिया है..!” अब यह सब सुनकर मुझे मेरे चेहरे पर और ज़्यादा तपन के साथ-साथ लाली भी महसूस हुई पर यूँ लगा कि अबकी बार उनके पानी ने मेरी जान भी बचा ली थी। बस अब क्या बचा और उनके साथ सारी औपचारिकता खत्म होती महसूस हुई।

अब सईद साब के साथ और अधिक खुलापन महसूसने के साथ सादे तम्बाकू का पान रोज़ चलने लगा। उनके पास न होने पर मैं बगल में शंकर भगवान से दो पान ले आता, पर अब मुझ पर पान के साथ सईद साब का नशा भी तारी होने लगा था।

 

इक शाम यूँ ही बातों-बातों में उसी तम्बाकू की झोंक में मैंने उनसे अपने मन की बात कही जो कि मैं कई दिनों से कहने की सोच रहा था। मैंने उनसे तैयार होकर कहा कि मैंने पाँचवी तक उर्दू पढ़ी है और इसे फिर जारी करना चाहता हूँ। इस बात पर उन्होंने मुझे गौर से देखा और सोचकर बोले.. “इक शर्त पर के अगर आप मुझे हिज्जे अलिफ़ बे ते.. ज़बानी सुनाकर औ फिर लिख के दिखाऐंगे तो..!” अब इन्हें पूरे रटने व सुनाने में मुझे पंद्रह दिन और लिखने में दो महीने लग गए। पर इसके बाद जब वह मुझसे पूरी तरह मुतमईन हो गए और मैंने उनका पीछा न छोड़ा तब आगे उन्होंने मुझे उर्दू पढ़ाना शुरु किया और आठ/दस माह पढ़ाते रहे। यह बात अलग थी कि पाठ रोज़ न होकर हफ़्ते में तीन-चार दिन होता।

एक शाम की बात है जब वह मेरे ही हमउम्र किसी शख़्स के साथ काउंटर के अंदर बैठे गपिया रहे थे और मेरे पहुँचने पर बताया कि वह मेरा ही इंतज़ार कर रहे थे। सईद साब ने बताया कि उनके साथ बैठे शख़्स दरअसल उनके भांजे ज़ुबैर हैं जो रफ़ी साब के दीवाने हैं, सिर्फ उन्हीं को गाते हैं और मुरादाबाद में स्टेज शोज़ करते हैं। मेरा परिचय भी उन्होंने जुबैर भाई को दिया और मुझे बताया कि वह हमें रफ़ी साब को सुनाने वाले हैं। तब जुबैर भाई ने उनकी फ़रमाईश पर “तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा..” गज़ब के बुलंद सुरों में सुना दिया कि बाहर लोग खड़े हो गए। समाँ बंध गया, वाकई मज़ा आया। खुद सईद साब

शीशे के काउंटर को बजा-बजाकर ताल दे रहे थे। बड़ी देर तक तारीफें चलती रहीं। तो जुबैर भाई ने सईद साब से गुज़ारिश की, पर उन पर तो उसी गीत का नशा तारी था।

अचानक सईद साब मेरी ओर देखकर बोले कि, “क्या आप कुछ सुना सकते हैं..?”

पहले मैं हड़बड़ा गया, पर रफ़ी साब का दीवाना न सही, भगत तो था ही। लिहाज़ा, भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए, “आदमी मुसाफ़िर है..” सुना ही दिया। सुनाया भी ऐसा कि इसके बाद सईद साब मुझे आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे और मुरीद हो गए।

तब एक बार फिर जुबैर भाई ने “तू गंगा की मौज़” गवाया और उसके बाद लाइनों की डिटेल्स पूछी, जो मैंने बता दी, और वह भी मुरीद हो गए। इसके बाद जुबैर भाई और मैं एक दूसरे के फैन हो गए।

कहाँ मैं कमरे के अंदर छोटी-मोटी महफ़िलों में गाने वाला और कहाँ वह दमगार आवाज़ में रफ़ी साब को लाइव गाने वाले स्टेज सिंगर। फिर भी वह मुझे मानने लगे और मिलने पर हमेशा रफ़ी साब के गानों की डिटेल्स पूछते और कहते कि फलाने गीत की फलानी लाइन कैसे गानी है, वह मुझे ज्यादा पता है।

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बाद के दिनों में वह मुझे वह जगह-जगह ले जाकर पूछते और कई बार तो अल्मोड़ा में अपने कई गाने बजाने वाले दोस्तों के पास “कराओके कैसेट” में गवाते और पूछते तो मैं गाकर बता देता। यही नहीं, आज भी मेरे गाए गीत जुबैर भाई को सबसे पहले सुनाने होते हैं और वह भी कभी-कभी मुझे अपनी लाइव रिकॉर्डिंग भेजते हैं।

और आज भी वह मुरादाबाद के चंद सबसे मशहूर सिंगर में एक हैं जिन्हें लोग बहुत चाहते हैं। हालांकि मैं उनके सामने कुछ नहीं, पर फिर भी मानते हैं कि मैंने उन्हें बहुत कुछ बताया और रफ़ी साब के अलावा भी सुनने व गाने की सलाह दी।

यह सब उनकी ज़र्रानवाज़ी है, वरना मैं उनके जुनून के आगे कुछ नहीं। खैर..

अब अगले कुछ दिनों बाद सईद साब ने मेरी इज़्ज़त अफ़ज़ाई करते हुए अपने काउंटर के अंदर जुबैर भाई वाली जगह मुझे बक्शी और पान पेश कर पूछा कि संगीत किससे सीखा। तो मैंने गुरुजी का नाम लिया तो बोले वह तो मेरे भी गुरुजी हैं और बड़े खुश हुए।

उस दिन के बाद सईद साब और मेरे बीच की ज्यादातर दूरियाँ खत्म हो गईं और आपस में खूब गाने-बजाने की बातें कर एक दिन इतवार को अपनी संगत में तबले पर ताल देने की दावत दी।

मुझे आज भी याद है कि उस दिन जब सईद साब ने अमीर खु़सरो की जो बंदिश सुनाई, उसमें इतने रमे कि उसे सुन मैं आधे से ताल देना ही भूल गया और मेरी आँखें नम हो गईं। पर आज मैं वह बंदिश भूल चुका हूँ।

 

इसके बाद हर इतवार हमारी बैठक दो बजे शुरू होती और अपनी डायरी व अरबी में लिखी किताब से एक से बढ़कर एक ग़ज़ल गाते हुए मतला भी बताते। इससे मुझे अपनी ज़बान साफ़ करने में बड़ी मदद मिली। इसी तरह से सोलह मात्रा से शुरू हुआ ठेका तीन ताल, दीपचन्दी, दादरा और कभी कहरवा के बीच इशारों से चलती महफ़िल तीन-चार घंटे चल जाती। बीच-बीच में पानों का दौर और फिर चाय पानी। हमारा यह दौर कई साल चला। यूँ तो मैं कोई ट्रेंड तबलची न था, पर यह सब ताल मुझे आती थी। और यूँ भी यह कोई बड़ी महफ़िलें न थीं और न ही बड़े कलाकार। पर इन छोटी महफ़िलों ने मुझे ग़ज़ल व शायरी समझने की सलाहियत दी, ऐसा मुझे बाद में समझ आया। अधिकतर ग़ज़लों के अलावा क़व्वाली, भजन भी सईद साब गाते और मैं भाग लगा लिया करता, या फिर वो मुझसे रफ़ी साब को सुनते, बस यही हमारी दुनिया थी। यूँ ही वक़्त गुज़रता रहा और मैं उनके और क़रीब आता गया।

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अब मैं हर बरस ‘मीठी ईद’ पर उनके घर पर ‘दही भल्ले’, ‘सेवईयोँ’ व दूसरे पकवानों की दावतें उड़ाता और सोचता कि काश मैं मांसाहारी होता तो बकरीद की दावतें भी उड़ाता। यह सब देखकर कुछ लोगों ने पंडित होने पर दुत्कारा, कुछ ने समझाया। तब मैंने उन्हें बताया कि.. “पकवानों के मज़े तो मैं लेता हूँ, मुझे बड़े स्वाद लगे.. तुमने कभी चखें क्या..? यह देखो मेरे मुँह में इनका नाम सुनकर फिर पानी आ गया..! ” कहकर मुंह से पानी निकाल कर दिखाता। साथ ही यह भी कहना न चूकता कि मैं यह भी सोचता हूँ कि काश मैं मांसाहारी होता तो ‘मुगलिया मसालों वाले गोश्त’ के मजे भी लेता। और वह मुंह बनाकर चुप हो जाते। पर ज्यादातर लोगों ने दुबारा इस बारे में फिर न कहा।

मुझे याद है कि ईद की मेरी पहली ही दावत पर सईद साब ने उन्हीं दिनों रिटायर हुए अपने छोटे भाई सलीम साब से तार्रुफ़ कराया। बातचीत चली तो मैं सलीम साब की विनम्रता व बच्चों जैसी खिलखिलाती हँसी पर मुग्ध हो गया। इसके बाद अक्सर उनसे मुलाकातें सईद साब की दुकान पर होती और कन्धे पर कपड़े का झोला टाँके हुए सलीम साब उनसे लजाते, शर्माते से बहुत हल्की आवाज़ में बातें करते और कुरान की कुछ आयतों के मतले पर चर्चा करते। यह सब मेरी समझ से परे था, पर बीच-बीच में वह मुझसे भी बात कर लिया करते। तब उनकी कला व ऐसी ही कुछ बातों से मेरे मन में उनसे सीखने की ललक हुई। पर इसमें मुश्किलें थीं। काम के अलावा मैं संगीत व उर्दू ही सीख रहा था और थियेटर अलग। “एक नाई कहाँ-कहाँ जाई..?” वाली बात थी।

 इन सब के बीच में मैंने उनसे कह न पाया, पर उनसे चर्चा जरूर की और उन्होंने हामी भी भरी थी। उन्होंने कई बार कला को देखने का नज़रिया बताया, पर बाज़ार से उनका घर दूर था। इसलिए मैंने अपने आने का वादा भर लिया। इसका मौका भी जल्द आ पहुँचा। उस बार के शरदोत्सव में हमारे फोटोग्राफी ग्रुप ‘माइमेटिक हुड’ की फोटो प्रदर्शनी में सलीम साब की पेंटिंग लगाने को हमारे अध्यक्ष मन्नू भाई चौधरी राजी हुए। हम दो-तीन दोस्त सलीम साब के घर पहुँच गए और उनकी पेंटिंग्स, उन्हें भी मनाकर ले आए।

इसके बाद से कई साल ऐसे उत्सवों में सलीम साब की पेंटिंग्स कन्धों व सर माथे लगाने का मौका मिला। तब उस समय लोगों ने जाना कि कला का ऐसा पारखी व चित्रकार हमारे ही बीच उपस्थित है। उनके ऐसे काम को देखकर हम खुद चकित थे। खासकर मैं व शशि शेखर तो अक्सर अवसाद में ही आ जाते और बातें करते कि ऐसे महान चित्रकार हमारे बीच होकर भी लोग अनजान हैं। खुद सलीम साब परदे के आगे आने को तैयार नहीं होते थे और लोग इन्हें देखकर आश्चर्य करते। बहरहाल..।

एक बार मुझे याद है कि सईद साब ने खिचड़ी का ज़िक्र होने पर मुगलई ‘खिचड़े’ के बारे में बताया। पर मुख्य बात इसके साथ खाने वाली जाने वाली गुड़-अमचूर से बनी एक चटनी का है, जिसे बनने में सात से दस दिन का समय लगता है।

एक वक्त के बाद इसके तैयार होने पर इसकी खुशबू से सबसे बड़ी मक्खी का आगमन होता है, जो इसके बर्तन पर बैठती है। जिसे वह ‘मक्खा’ कहते, इस चटनी के तैयार होने का प्राकृतिक संदेश है। और इसके बाद ही खिचड़ी पकायी जाती है। जनवरी माह में हुई उस दावत में मेरे अलावा सलीम साब भी मौजूद थे। जिसका स्वाद आज तक मेरी ज़बान पर मौजूद है। और तब इसके बाद हर साल जनवरी में इस ‘खिचड़े’ की दावत होती और हम इसका लुत्फ़ लेते।

हमारा बैठना, मिलना, जुलना और महफ़िलें बदस्तूर जारी थीं। और सीखने व करने को खूब मिलता। सईद साब की कारीगरी व काम की सफाई देख ग्राहक खुश रहते। और एक ऐसे ही ग्राहक ने उनसे अपने गाँव में ज़मीन देने का वादा कर दिया। बस फिर क्या था, सईद साब ने ज़मीन खरीदी और दो कमरों का एक सैट बना डाला। जिसमें एक कमरे में उन्होंने कुछ बकरियाँ और मुर्गियाँ पाल लीं और दूसरे में अपने गाने बजाने का साजो सामान रखा। और हर सुबह आकर रियाज़ करते। रियाज़ के बाद सईद साब बकरियों, मुर्गियों को चारा, पानी देकर चले आते। हमने मिलकर भी कई इतवार वहाँ बिताए और कई बार पैदल चलकर वापस भी आते। पैदल चलते सईद साब गमबूट पहने व कंधे के पीछे छाता लटकाए व पठान सूट पहने मुझे किसी चरवाहे शायर के मानिन्द लगते।

एक मजेदार बात यह थी कि सईद साब ने अपने पाले हुए सभी जानवरों के नाम रखे हुए थे, जिनमें लाली, काली, जुबैदा, रईसा, लालू, काले, अल्लाबक्श आदि थे। दो-एक बार यह भी हुआ कि किसी रात बाघ ने दरवाजा तोड़कर काफी नुकसान कर डाला।

उधर, कुछ साल पहले उनके पास एक इटैलियन जिसका नाम मार्कोनी था, घड़ी ठीक कराने आया था। तब बातचीत के दौरान उन दोनों की दोस्ती हो गई। मार्कोनी अपने साथ इटली के बीस लोगों का एक ग्रुप लेकर आया था और शीतलाखेत में रुका था। इसके बाद यह हुआ कि मार्कोनी उन्हें एक ग़ज़ल गायक के रूप में अपने साथ शीतलाखेत हर बरस लेकर जाने लगा, जहाँ वह ग़ज़ल, भजन, होली आदि गाकर विदेशियों की वाहवाही लूटते और नकदी, तोहफे़ पाते थे। कई साल यह सिलसिला चला।

और फिर मार्कोनी ने उन्हें इलेक्ट्रॉनिक तबला, तानपुरा आदि तोहफे के साथ-साथ सईद साब का जिक्र अपनी लिखी किताब में तक किया और एक कॉपी उन्हें देकर गया, जो उन्होंने मुझे भी पढ़ाई।

यह सब मेरी उनकी मुलाकात के बाद की तफ़्सीलें थीं। मैंने मार्कोनी को पहली बार और फिर दो-एक बार और देखा था, पर उन्होंने ज्यादा नहीं बताया। बस जब शीतलाखेत से आ जाते तब बता भर देते कि वहाँ क्या हुआ। इसका कारण भी मुझे महसूस हुआ।

पहला यह कि मैं कोई ट्रेंड तबलची नहीं था। दूसरा यह कि सईद साब बैठक होली में खुद अटक जाते। वजह शायद यह कि हमारी बैठक होली, जिसे ‘दरबारी राग’ का तमगा हासिल है, यानि आपस में मिलकर या भाग लगाकर गाए जाने वाला सामूहिक राग, न कि ‘राग दरबारी’।

सबसे खास बात यह कि इसमें तबले की सोलह मात्रा के सामान्य ठेके की जगह चौदह मात्रा पर सम पड़ता है। मैं बैठक होली का रसिक नहीं था और वह खुद भी बैठकों में कम जा पाते। लिहाजा, होली गाते-गाते चौदह मात्रा गिनते और इशारा करते, बावजूद इसके भी अक्सर गलतियाँ होती और गड़बड़ियाँ हो जातीं।

पर बैठकी होली की विशेषता ही यही है कि इसे कोई भी गा सकता है, बशर्ते इन बैठकों में नियमित बैठकर इन बन्दिशों से अपने कान भिगोए जाएं। जिसकी समय सीमा कुछ जानकारों के अनुसार चालीस साल की हो सकती है।

बहरहाल, इन सब के बीच मैंने यह जाना कि सईद साब की दिक्कतें भी बहुत थीं। बावजूद इसके वह बड़ी ज़िंदादिली और हिम्मत से इनका सामना करते और सामने वाले को न तरस खाने का मौका देते और न कुछ छुपाने की कोशिश करते।

उनके जैसी परिस्थितियाँ होने पर आदमी टूटे बिना नहीं रह सकता, पर सईद साब ज्यादा से ज्यादा व्यस्त रहकर अपनी परेशानियों को मुंह चिढ़ाते रहते। जबकि परेशानियाँ उनकी थीं कि खत्म होने का नाम नहीं लेतीं। यह सब मेरी देखीं होती।

इसके बाद का समय ऐसा आया कि एक बार सईद साब के कमर से नीचे का शरीर करीब-2 सुन्न हो गया। सलाह लेकर उन्होंने कई जगह दिखाया, पर फायदा नहीं हुआ। तब मुरादाबाद में दिखाने पर किसी गंभीर रोग का पता चला।

उस इतवार की शाम को मिलने पहुंचा तो बिस्तर पर लेटे हुए सईद साब ने उठने की कोशिश के साथ खैरमकदम किया। अंतहीन तकलीफें, बेबस आँखें, बेतरतीब बढ़ती हुई सफेद दाड़ी पर चेहरे पर हमेशा रहने वाली हँसी। मुझे उस दिन उन्हें देख बहादुर शाह ज़फ़र याद आ गए।

करीब दो साल के इस वक्फे में सईद साब का इलाज व दवा मुरादाबाद से चलती रही। कभी-कभी वे मुआयने के लिए जाते भी थे। तेज दवाओं के चलते तबीयत हमेशा नासाज़ रहती, थकावट तारी रहती, पर फिर भी काम किए जाते।

उस बीच, काम सीखा हुआ एक शागिर्द अपना फ़र्ज समझ चला आया था। अब वही ज्यादातर दुकान पर बैठता, कमा कर देता। पर इलाज पर पैसा काफी लग रहा था। घड़ी व चश्मेकारी का काम मॉडर्न हो चुका था।

गाँव के मकान से लगी आधी ज़मीन बेच दी गई। मुर्गियाँ व बकरियाँ पहले ही बिक चुके थे क्योंकि उनकी देखभाल न हो सकती थी। और उनके मिलने जुलने वालों में भी कमी आती चली गई।

कभी-कभी मैं समय मिलने पर मिलने चला जाता था। पर मुझसे उनकी और बच्चों की परेशानी देखी नहीं जाती थी। पर ग़ैरत से भरे सईद साब किसी मदद लेने को तैयार भी न होते। इन बातों से मैं रुआंसा होता तो खुद ही रुहानियत भरी बातें कर मुझे समझाते।

मुझे यह सब देखकर ऋषिदा की फिल्म ‘आनंद’ याद आती थी और फिल्म टीवी पर देखता तो सईद साब याद आ जाते।

इन सब के बीच बरस 2008 का जुलाई आ चुका था। इधर तीन-चार महीने गुजर गए थे जब मैं उनसे न मिल पाया। तब इक दिन सईद साब ने आँखें मूंद लीं।

दूसरे दिन जुबैर भाई ने शाम को अचानक मेरे दरवाजे पर दस्तक दी। आते ही बोल पड़े.. “आप कल दिखे नहीं सईद मामा के जनाज़े में..!” सुनकर कब, क्या, कहाँ कहते हुए और अपना चैम्बर लॉक करते हुए मैं उनका कोई जवाब न सुन सका।

आँखों में आँसू लिए मैं और जुबैर भाई बिना कोई बात किए दो मील दूर कब्रिस्तान लगभग दौड़ते हुए उनकी कब्र पर पहुँचे। मैं, अपने दोस्त, उस्ताद के यूँ चले जाने और उनके जनाज़े में शामिल न हो पाने की गहरी निराशा व बोझ लिए खड़ा सुबकता रहा।

उस बीच चंद मिनटों के लिए मेरी बंद आँखों में उनके साथ बिताया हर एक वक्त, लम्हा याद आता रहा। और फिर अंतिम विदा से ठीक पहले उनकी मय्यत की मिट्टी हाथ में लेने को जैसे ही हाथ बढ़ाया, अचानक मिट्टी में दबाया गया किल्मोड़े का काँटा उंगली पर लगा और हाथ पीछे हो गया। लगा कि जैसे सईद साब मज़ाक में च्योटि काट बोले कि..”क्यों मियाँ अब व़क्त मिला हमसे मिलनें का जब हम दफ़्न होकर मिट्टी हो चुके..?”

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