मेरा शहर, एक छोटा और प्यारा सा मेरा अल्मोड़ा, मेरी यादों का पिटारा जिसका नाम सुनते ही खुलने लगता है।
पहाड़ो से, हरियाली से सजा हुआ मेरा अल्मोड़ा, जहाँ बस अब मेरी यादें ही बसती हैं, यादें जो शुरू होती हैं बचपन से और चल पड़ती हैं मेरे मन में बसने के लिए मेरी विदाई के साथ।
वो स्कूल का पहला दिन, मेरा स्कूल एडम्स गर्ल्स इंटर कॉलेज, जो शहर से कुछ दूरी पर है, हरी भरी वादियों के बीच, घर से स्कूल तक का आधे घंटे का रास्ता जाने कितने अनजाने चेहरों से पहचान करवाता था, वो सुबह की प्रार्थना और फिर शुरू होता था पढाई और दोस्ती का दौर, स्कूल के कैंपस में वो आलू की चाट वाली आंटी जो अपनी डलिया में हमारी खुशियों का खजाना लाती थीं, कभी पत्तों पर तो कभी अखबार के टुकड़े में रखकर बेचा करती थी चटनी के साथ और आज भी वो स्वाद मेरे मुँह में ही हैं पर अब न वो आंटी हैं ही न ही उनकी खास चाट।
वो आखिरी पीरियड स्कूल का, कभी हमारे टीचर हमें सुला देते थे, तो कभी कक्षा की मॉनिटर अंताक्षरी खिलवाती थी या फिर डांस होता था।
कभी ज़्यादा बोलने की और क्लास में शैतानी की सजा में सब हाथ ऊपर करके बाहर निकल दिए जाते थे, सबसे अच्छा मुझे इंटरवल लगता था जब सब दोस्त मिल कर बैठते थे , खेलते थे और बेफिक्री से जीते थे।
वो सेक्शन का बदलना और दोस्तों का बिछड़ना और फिर से कुछ नए दोस्तों का ज़िन्दगी में प्रवेश होता था।
दोस्त भी कई प्रकार के होते थे, स्कूल साथ जाने वाले दोस्त, ट्यूशन वाले दोस्त, मोहल्ले के दोस्त और स्कूल के सबसे प्यारे दोस्त।
स्कूल के रास्ते में एक सफ़ेद दाढ़ी वाले अंकल की दुकान होती थी, जहाँ से हम चापट, ढूंढते रह जाओगे, इमली के लड्डू, स्वीट सुपारी और जाने क्या क्या खरीदते थे।
हमर चैपल हॉल जहाँ पर मुझे याद है कि हमारी एक मिस ने एक लड़की के ज़्यादा बात करने पर उसके पेट पे छड़ी को घुमाया था और वो मुझे आज भी याद है और मैं अभी भी लिखते हुए हँस रही हूँ??, क्या दिन थे वो भी, जो कभी वापिस नहीं आ सकते और उन्हें एक पन्ने में नहीं उतारा जा सकता है।
वो प्रार्थना के समय और छुट्टी के लाइन में लगना और सबसे छोटी लड़की का सबसे आगे लगना और हमारा अपने दोस्तों के साथ लाइन में लगने के लिए अपनी लम्बाई को घटाना और बढ़ाना ?।
जब हम छोटी क्लास में थे तब दोस्ती थी और उससे ज़्यादा लड़ाई होती थी, डेस्क के लिए जिसमें हम लक्ष्मण रेखा खींचा करते थे और फिर शुरू होती थी लड़ाइयां, और क्लास की खिड़की से हम आने जाने वाले लोगो को देखा करते थे और तरह तरह की बाते किया करते थे ?? तब जब टीचर पढ़ा रही होती थी और हम बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी रोक पाते थे, क्लास मुझे याद नहीं, शायद नवीं में थे हम और हम दो दोस्त और वो तीन, हम पांचो साथ बैठा करते थे अपनी अपनी लाइन ऑफ़ कण्ट्रोल के अंदर पर वो लाइन भी ऐसी वैसी नहीं थी वो स्केल से एक एक इंच नाप के खींची गयी थी और ज़रा सा चूक हुई नहीं की फिर से युद्ध छिड़ जाता था और इसी बीच एक गर्दन से चेहरा निकल के मुस्कुराता रहता था और फिर उसपे भी बहुत बहस होती थी।
वो अगरबत्तियों के कवर से फूल काट कर उसमें सुंदर सा धागा लगा कर हमारा बुक मार्क बनता था जो बड़ी ख़ुशी से हम अपने दोस्तों को दिखाया करते थे।
दसवीं में ट्यूशन के दोस्तों का भी अपना ही ग्रुप होता था ,जिनके साथ हम सुबह सुबह निकल पड़ते थे पढ़ने और जाड़ो के दिनों में अँधेरे में डरते डरते मंज़िल तक पहुंचते थे पर डर इंसानो का नहीं था क्युकी हमारे शहर में सब कुछ बहुत अच्छा था, डर लगता था भूतो से, कहीं अँधेरे में भूत आ गया तो क्या होगा और फिर शुरू हुआ हनुमान चालीसा और दुर्गा चालीसा को याद करने का जतन।
स्कूल से वापिस आते हुए,बावन सीढ़ी में, गर्मी के दिनों में हम कभी कभी सोफ्टी भी खा लिया करते थे जिसे अब हम स्ट्रॉबेर्री कोन कहते हैं, वैसे वो बावन सीढ़ी कभी मैंने गिनी नहीं, अगर किसी ने गिनी हो तो बताइयेगा ज़रूर, वहाँ से घर तक का सफर हैं कूदते फांदते पार करते थे और रास्ते में खड़क भी खाते थे जिसका पेड़ हमारे स्कूल के रास्ते में हुआ करता था और कभी हिसालु और न जाने कितने जंगली फल होते थे जो हमने खाये अपने बचपन में।
और वो हरे पत्ते जिन्हें हम अपने हाथो पर छापा करते थे, वो छपाई किसने सोचा था की सीधे दिल में ही छप जाएगी, बाकि अगले भाग में, अगला भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें ।
और मेरी आदरणीय टीचर्स और जिन साथियों के बारे में मैंने इसमें लिखा है और मुझसे कुछ गलत लिख गया हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।
धन्यवाद