यूँ तो दोस्तों हमारे समाज में लम्बी- 2 फेंकने वालों बड़ा महत्तवपूर्ण स्थान रहा है और रहेगा..
हालाकि उन्होंने फेंकने के अलावा समाज में बदलाव के प्रयास न किये, न ही ऐसे काम जिनके कारण उन्हें याद रखा जा सके। वो सिर्फ अपनी फेंकने की अदा से याद किए जातें है और मनोरंजन के पात्र के रूप में याद किए जाते हैं और किए जाते रहेंगें..।
गप्प यानि फसक मारने वाले का हमारे आपके बीच भी बड़ा नाम होता था। ज़रा याद कीजिए दोस्तों के हर ग्रुप में कोई एक बन्दे की यूएसपी केवल और केवल गप्प मारना होती थी कोरी या भरपूर..। आज के ज़माने में चूंकि समय का अभाव है तो आज वह अपनी इस कमी को फेसबुक/ फसकबुक पूरा करता है।
तो बात हो रही थी कि हर दौर में फसक मारने वालों के रूतबे की जिसके इर्द गिर्द उसे सुनने वालों की भीड़ जमा हो जाया करती थी।
आज हम अपने दौर के एक और महापुरुष नहीं बल्कि महाफसकु इकबाल नाई उर्फ़ एकबाल उर्फ़ बबाल भाई का जिसने हमारे ज़माने के सारे फसकों के रिकार्ड अपने नाम निश्चित किए होंगें.. और जिनको हमने देखा बीसवी सदी के बरस अस्सी के दशक से लेकर एकीसवीं सदी के पहले दशक तक..।
अब उम्र का तो उनकी कोई ठिकाना न था यानि कोई न बता पाया कि क्या उम्र रही होगी पर अन्दाजन हमसे बड़े ही रहे होंगें पर पाँच सात साल से ज़्यादा नही।
हमारी बारह चौदह की उम्र में माशाल्लाह बीस बाईस साल के गबरु जवान रहे होंगे जिस दिन से हमारा उनसे राब्ता रहा।
दरअसल हुआ यह कि बचपने में इक इतवार हम दो पड़ोसी दोस्त कचहरी बाज़ार में सलीम चचा के यहाँ बाल कटवाने निकले, बाज़ार में पहुँचते ही हम दोनों सलीम चचा के यहाँ रखी गई कॉमिक्स के नाम याद कर एक दूसरे को जानकारी दे रहे थे।
अचानक पीछे से एक गबरु जवान ने अपनी बातों में ऐसा फँसाया कि उसके मुँह से चचा चौधरी की नई कॉमिक्स का नाम सुनकर लालच में आकर उसके हाथों हाईजैक हो लिए और चचा सलीम को ओवरटेक करते हुए उसकी दुकान में पहुँच गए जो कि सलीम चचा की दुकान से सौ मीटर नीचे मस्जिद के लगभग सामने ही थी।
बावजूद अपनी इतनी बड़ी कुर्बानी के हम दोनों पड़ोसियों के हिस्से चचा चौधरी की वह नई काॅमिक्स आधी-2 ही पड़ने में आई जिसके कसूरवार इकबाल भाई रहे।
तो हम पहले दिन से ही यह समझते हुए कि इकबाल भाई ने हमसे चालाकी की इसके बावजूद हम कई बार और इकबाल भाई की चतुराई का शिकार बने पर उनसे कोई शिकवा न रहा।
हमारी इस तरह की नादानी से ज़्यादा इसमें इकबाल भाई के बिज़नेस करने के नायाब नये-2 तरीकों का ज्यादा हाथ रहता जिसमें उनकी तरह-2 की हेयर स्टाइल से लेकर उनके हुनर व मस्का लगाने का ज़्यादा हाथ रहता।
यूँ ही कभी कभार करते-2 बरस अस्सी का दशक बीत गया…।
अब बरस नब्बे में घर से बाहर निकलने पर थोड़ा अक्ल तो आई पर फिर भी छुट्टियों में घर आने पर कभी कभार उनके पास चले जाते पर अब वह खुद भी हमारे लिए कुछ बदल चुके थे। पुरानी अकड़ वकड़ तो न दिखाते पर बाल कटवाने तक गज़ब की चापलूसी करने लगे थे।
हमारे बाल, गाल और चेहरे को लेकर क़सीदे काढ़ते पर अब हम समझने लगे कि अपने ग्राहकों को यूँ ही खुश रखते है पर फिर भी हमें उनकी वो झूठी तारीफ़ अच्छी भी लगती।
पुरानी पहचान होने से हम किसी सब्ज़बाग में न रहते और चुपचाप उनकी गप्पें सुनकर बाल कटवा वापस चले आते, क्योंकि पहले ही वह हमें अपनी गप्पों में इतनी ऊँचाई तक ले गये थे जहाँ से वापस आना अपने बुरे दिनों में वापस आना सा लगता।
फिर यूँ भी लगा कि भला हुआ कि वक्त रहते इस शहर से बाहर जाकर चीजें समझ ली कि इकबाल नाई होना कितना कठिन है.. अपने काम से नहीं बल्कि अपनी गप्पों से.. वरना यहीं रहकर उनकी गप्पों में आ गए होते तो आज कहीं के न रहे होते।
दरअसल इकबाल भाई की दुनिया उनकी दुकान में रखी चीजों, फोटूओं, लाइट, कलेंडरों, पर्दों और खुश्बुओं की ऐसी रहस्यमयी दुनियाँ थी जहाँ से उनकी बातें सुन दिमागी रूप से सही सलामत निकलना हर एक के बस की बात न थी। मसलन..
अक्ल आने के बाद मैनें इकबाल भाई के ठीक सामने टगीँ श्वेत-श्याम फोटू के बारे में उनसे पूछा जिसके जवाब में इकबाल भाई नें ‘फिल्म-खिलौना‘ के बारे में पूछा.. मेरे वही संजीव कुमार वाली कहने पर बोले.. “आप सही पहचाने.. मैं यही जानना चा रहा था कि आपको फिल्मों की नालेज है कि नहीं..!”
“अब सुनिए ये मेरे वालिद साब हैं और ये दोनों खास लगोंटियाँ यार थे जनाब.. ये उसी खिलौना फिल्म के सैट की फोटू है जिसमें दोनों ने एक सी ड्रेस पहनी है..!”
मेरे यह कहने पर कि पर इसमें तो वालिद साब अकेले है तो बोले.. “पहले बात तो सुनिए पूरी.. दरअसल एक दूसरे से बिछड़ते हुए दोनों ने यादगारी के लिए अपनी-2 फोटू काटकर अपने-2 पास रख ली.. जरा गौर से पास जाकर देखिए फोटो एक साइड से कटी होगी..!”
इकबाल भाई के सम्पर्क में आए लोग अगर उनकी सिर्फ एक एक फसक भी बता दें तो फसकों का एक महाकाव्य तैयार हो सकता है पर मैं खुद यह पोस्ट उनकी गप्पों पर न लिख उनकी असल ज़िन्दगी पर लिख रहा हूँ सनद रहे..।
पैरों के लड़खड़ाने की दिक्कतें ज्यादा नब्बे के दशक से बढ़ने लग गई थी। पर बताते कि पैरों की समस्या बचपन से ही हल्की फुल्की हमेशा रही और इसमें भी एक और फसक मिलाकर पेश कर देते।
पर खाने पीने के शौकीन इकबाल भाई की स्वास्थ सम्बंधी दिक्कते उनके बेतरतीब खाने के शौक के चलते और बढ़ती चली गई..।
यूँ तो गप्प यानि फसक इकबाल भाई की सबसे बड़ी पहचान थी पर उसमें भी कभी आपको फसकें रिपीट होती कभी न मिलती.. कहावत है कि… “मुंह हुआ तो बोल दिया… ” चलिये कहावत रहने देते है, बात यह है कि – जिस दिन इकबाल भाई का जैसा मूड हुआ, वैसा उगल दिया।
चापलूसी में भी उनकी कोई काट न थी किसी नेता, ऑफिसर, गुंडे या पैसेवाले को चेहरे या सर पर.. “एक बाल रह गया है सर..!” कह कर दुबारा सीट पर बिठाकर काटते जिससे उनके पड़ोसी व जानने वाले उन्हें ‘इकबाल‘ छोड़ ‘एकबाल‘ कहने लग पड़े।
खुदा मुआफ़ करे.. हँसते भी ऐसे खूंखार तरह से कि लगता आसपास से कोई कुत्ता आकर झपट पड़ा हो.. पर उनकी हँसी वाकई खत्म होने पर ही सुनाई देती और इस बात की तस्दीक उनका हर जानने वाला कर सकता है।
अब हल्का सा उनकी फसक की बानगी को टच कर एक पैरा में समेटने की कोशिश करता हूँ.. दुकान पर ताजमहल की फोटू के मानिन्द उनका कहना था कि उनके बड़े अब्बा के बड़े अब्बा ने उसमें अपनी कारीगरी के जौहर दिखाए थे और जामा मस्जिद में उनके अब्बा के फूफा के बड़े अब्बा के दामाद के भतीजे ने मैंनेजरी कर रखी हैगी.. ऐसा उनके बयानात में सामने आया।
इसी तरह से उन दिनों के मशहूर टीवी शोज अंताक्षरी के मशहूर होस्ट अन्नू कपूर को उनने अपने बचपन का लंगोटिया यार बताया जो कक्षा पाचँ तक उनके साथ मुरादाबाद में पढ़ता था.. इसके अलावा सारेगामापा के होस्ट सोनू निगम से उनका पंगा हो गया था सुर को लेकर जिसकी वजह से उन्हें खिताब से महरुम किया गया, बदले में वह फाइनल की रनर अप ट्राफी भी वही छोड़ वापस चले आए।
नब्बे के दशक के बीतते-2 इकबाल भाई को खड़ा रहना भी मुश्किल रहने लगा फिर भी बड़ी मुश्किल से वह ग्राहकों को निपटा पाते पर उनकी जुबान ने कभी उनका साथ न छोड़ा.. उसी मुश्किल में भी वह लगातार फसक पर फसक मारे जाते वह भी बिना रुके। बिना थके और रुके फसक मारने की भी कोई प्रतियोगिता होती तो इकबाल भाई उसके ओलिम्पिक में एक आध गोल्ड तो ले ही आते।
हाँ अब एक नई मुसीबत मुँह बाए खड़ी हो चली कि शाम को घर पहुचनें की जद्दोजहद बड़ी भारी और बोझिल हो चली.. दरअसल इकबाल भाई के कु्ल्हे की हड्डिया, पैर बढ़ाने की तरफ़ तब तक आगे चली जाती जब तक वह दूसरा क़दम बढ़ाकर उसे रोक न लेते.. इस आपाधापी में लाठी सहित उनकी चाल ऐसी लगती कि वह कही पहुँचे बिना सिर्फ क़दम बढ़ाए जा रहे हो।
इसका तोड़ इकबाल भाई ने निकाला कि किसी दोस्त, रिश्तेदार, पड़ोसी के साथ शाम को घर की ओर निकल पड़ना बाक़ी लाठी के अलावा साथ वाले के भरोसे छोड़ देना.. यूँ भी अमूमन उनकी स्थिति को देखकर लोग साथ चलने को बुला ही लेते पर अब बात बड़ी होती गई।
शुरु में लोगों ने हाथ थाम, बाँह, कंधा थाम कर सहारा देकर भी बहुतेरी कोशिश की पर उनका अब वजन भी इतना बढ़ गया कि साथियों को न सिर्फ उन्हें थामने में ही ताकत लग जाती बल्कि भाईजान आगे सरकने के लिए उन्हें पीछे खींच लिया करते। चुनाचे लोगों ने बबाल समझ कर फिर एक नाम रखा इकबाल की जगह बबालभाई.. और बहुत बड़ा बबाल समझ कर कट लेते..।
अब हालत यह हो गई कि घर पहुँचने में ही दो एक घंटे लग जाते क्योंकि रूक-2 के जाना होता.. अब एकबाल भाई ने तरकीब निकाली जिसके तहत यंग ताकतवर लड़को को रस्ते में खिलापिला कर मनाने का.. पर उनकी शोबत में खुद भी इतना खा लिया कि उनके लिए और भारी हो गये..।
अब उसमें तफरी लेने वाले अलग होते जो खाने तक साथ होते और उससे आगे उन्हें बैठाकर नड़ी हो जाते.. कुछ हर दो कदम बाद खिलाने का तकाज़ा करते.. करते-2 हालत यह हो गई कि उन्हें घर पहुँचने में चार/पाँच धंटा लग जाते, वह भी खाली जेब।
उसके बाद घरवालों ने घर के थोड़ा नज़दीक बारबर शॉप खोल दी पर नतीजा वही रहा और एक दिन यूँ ही डगमग डगमग करते हुए इकबाल उर्फ एकबाल उर्फ बबाल भाई खुद अपने ही सहारे हँसते, खिलखिलाते, कोरी गप्प मारते धीरे-2 चुपचाप हम सबसे दूर दुनिया से रुख़सत हो लिए..।
इकबाल भाई जितने किस्से सुनाते, उतने ही किस्से उनके बारें मे सुनने के मिलते, उनकी कई कहानियाँ मशहूर है, जिन्हे लोग चटखारे लेकर सुनते – सुनाते है। उस दौर के में वहाँ से जुड़े लोगों से जो आज भी सुनने को मिल जाती है।