चंपा नौला का तीन मंजिला मकान मेरी दिल्ली वाली बुआ के ससुराल वालों का था, और हम लोग उस मकान के पांच कमरों में साठ रुपये महीने के किराएदार थे। बीच वाली मंजिल में देबी बुआ रहती थीं, सबसे ऊपर सागुडी जी मास्टर साहब और बगल में ख्याली राम पांडे जी का परिवार रहता था। आलीशान भव्य मकान, दोनो तरफ आंगन, बड़ा सा प्रवेश द्वार और दो-दो खेत थे। एक गेट के पास, जिस पर हम लोग साग-सब्जी बोते थे, दूसरा कैजा के अधिपत्य में, जहाँ वो खेती करती थी। कैजा वाले खेत में नींबू का पेड़ था, तो हमारे किचन गार्डन में आड़ू का पेड़ था। जनाब क्या दिन थे बचपन के, मौज-मस्ती, खेल-कूद, आइस-पाईस, क्रिकेट, सेवन टाइम! ऊपर बड़े घर में मिट्ठू दाजू रहते थे, पीछे दिनेश घनचव्वा, बगल में के सी, पी के, भैया, नीचे निर्मल, सुदामा, सीटी और बहुत सारे सन्गी साथी। तब माता-पिता बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की ज्यादा टेंशन नहीं लेते थे। ट्यूशन पढ़ना, जो आजकल आम बात है, तब बहुत कम लोग पढ़ते थे, और इसकी जरूरत कम बुद्धि वाले बच्चों को होती थी। बस स्कूल से आए, सब मित्रों का जमावड़ा, खेल-कूद और मौज-मस्ती। बचपन बड़े प्यार से गुजरा।
हमारे घर का आंगन वहाँ उपलब्ध स्लेट पत्थर का बना था, और अलग-अलग समय पर वहाँ अलग-अलग क्रिया-कलाप होते थे। जहाँ वो आंगन सर्दियों में धूप सेकने का अड्डा हुआ करता था, वहाँ बड़ी मूंगफली बनाकर सारे घर वाले वही सुखाते थे। बच्चों के खेल का मैदान, बड़ों के गप्प मारने की जगह, शादी-विवाह के समय कनात लगाकर खाना खाने का व्यवस्थित डाइनिंग रूम बन जाता था। इसी आंगन से मेरी बहन अपने ससुराल गई, हमारे घर में छोटे भाई की बहू आई, और मेरी धर्मपत्नी का घर में प्रवेश इसी आंगन से होते हुए सम्पन्न हुआ। इसके अलावा हमारे प्यारे बाबूजी की अंतिम विदाई का गवाह भी यह आंगन बना। मित्रों, मुझे तो अब तक यह याद है कि इस आंगन में कहाँ पर किस रंग का पत्थर लगा है, और इसके हर कोने से मेरी खट्टी-मीठी यादें जुड़ी हैं। मुझे याद है होली में होलियारों की टोली जब हमारे घर आती, ढोल-ताशे बजते, खड़ी होली गाई जाती, सूजी-गुजिया और जम्बू-जखिया वाले आलू खिलाए जाते, तब इसी आंगन में सारे लोग समा जाते और खूब हुड़दंग मचता। इस आंगन में होली का गुलाल बिखरता तो दिवाली के दीये भी जलते।
धीरे-धीरे हम सब भाई आजीविका कमाने अल्मोड़ा से बाहर निकाले, बाबुजी का देहांत हो गया, और ये मकान छूट गया। सबने अपनी-अपनी गृहस्थी बसा ली, इजा भी अल्मोड़ा छोड़ लखनऊ रहने लगी, और वो घर, सारा सामान, मेरी किताबें, अजय के जीते कप-ट्रॉफियां, नेहा के खिलौने, पुराने फोटो, सब वही बंद हो गए। बस रह गई वो यादें जो इन चीजों से जुड़ी थीं, कभी सुखद तो कभी आँखें नम कर देने वाली।
घर का बड़ा बेटा होने के नाते कभी अच्छे कामों में तो मुझे आगे आने का अवसर न मिला और न दिया गया, लेकिन जब भी कोई ऐसा काम करना होता जो मुझे कदापि नहीं भाता और न दिया गया, लेकिन जब भी कोई ऐसा काम करना होता जो मुझे कदापि नहि भाता, ये एहसास दिलाकर कि मैं बड़ा हूँ, वो काम करवाए जाते थे। तो जनाब, अल्मोड़ा के इस मकान को खाली करने का कार्य भी मेरे नसीब में आया। एक-एक करके उस गृहस्थी को तिनका-तिनका होते देखा, जिसे हमारे बाबूजी ने बड़ी मेहनत से जोड़ा था। “ये तू ले जा, ये उसे दे देना,” कहकर बाबूजी का जोड़ा हुआ एक-एक सामान बाँटा, घर खाली किया। चंद तस्वीरें मैंने भी अपनी श्रीमती जी से आँख बचाकर रख ली थीं, पर उन्होंने वो तस्वीरें भी देख लीं और देख लिए मेरे आँखों के आँसू, जिन्हें मैं किसी को दिखाना नहीं चाहता था।
खैर, जनाब, जब सब कुछ खाली कर चंपा नौला की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था, तब एक-एक कदम रखना बहुत ही भारी पड़ रहा था। सुमन के कंधों का सहारा लेना पड़ा। मानो उस सीढ़ी के हर पत्थर पर कोई न कोई याद बैठी हो, जो मुझे रोक रही थी पीछे लौटने के लिए। दूर से ही अल्मोड़ा का वो नजारा दिखाई दिया, जिसे देखते हुए बचपन बीता था। पहाड़ों का सीना चीरता हुआ सूरज, दूर घुमंड से खड़े देवदार के पेड़, और नैनीताल की ओर जाती हुई सड़क का वो मोड़… सब कुछ वैसा ही खड़ा था, मगर मेरा बचपन का घर वहाँ नहीं था।
शायद यही जिंदगी है। कुछ चीजें बदलती हैं, कुछ याद बनकर रह जाती हैं। बस इतना ही है कि कभी-कभी वो यादें इतनी ताकतवर होती हैं कि हमें रुला देती हैं।