उत्तराखण्ड अपनी संस्कृति और रीती रिवाजो से भारत में एक अनूठी पहचान रखता है जैसे की उत्तराखण्ड एक सुन्दर पर्वतीय राज्य होने के साथ साथ बहुत से धार्मिक स्थलों का समूह भी है। अगर बात करे के यहां के त्योहारों की तो हर त्योहार का अपना एक विशेष पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व है।
उत्तराखण्ड में चंपावत जिले के देवीधुरा नामक स्थल पर मां वाराहीदेवी मंदिर के प्रांगण में प्रतिवर्ष रक्षा बंधन (श्रावणी पूर्णिमा) के दिन बग्वाल मेले का आयोजन किया जाता है। स्थानीय बोली में इसे ‘आसाडी कौतीक भी कहा जाता है। माँ वाराही का मंदिर 52 पीठों में से एक माना जाता है। देवीधुरा स्थित शक्तिपीठ माँ वाराही का मंदिर पर्वत श्रंखलाओं के बीच स्थित है। मंदिर के चारों ओर देवदार के उँचे-उँचे पेड़ मंदिर की शोभा में चार चाँद लगाते हैं। माँ वाराही का मंदिर अपनी अलौकिक सौंदर्य और प्राचीन मान्यताओ के लिए प्रसिद्ध है। इस मेले की मुख्य विशेषता लोगों द्वारा एक दूसरों पर पत्थरों की वर्षा करना है। जिसे पत्थर युद्द भी कहते है। जिसमें चंयाल (Chanyat), वालिक (Valik), गहड़वाल (Gahdwal) व लमगाडीया (Lamgadiya) चार खामों (Khamon) के लोग भाग लेते हैं। बग्वाल खेलने वालों को द्योके कहा जाता है। यह मेला प्रति वर्ष रक्षा बंधन के अवसर पर 15 दिनों के लिए आयोजित किया जाता है।
जिसमें अपार जन समूह दर्शनार्थ पहुंचता है। बच्चे ,बड़े, बुजुर्ग सब मेले में बड़े उत्साह व उमंग से भाग लेते हैं। आस्था और विश्वास का यहां पाषाण युद्ध मां बाराही मंदिर के प्रांगण में बड़े जोश व वह पूरे विधि विधान के साथ तथा पूरी तैयारी के साथ खेला जाता है। यह अपने आप में एक अनोखा व अद्भुत मेला है जो शायद ही दुनिया में और कहीं खेला जाता हो।
वाराही देवी मंदिर की पौराणिक कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार माँ काली के गणों को प्रसन्न करने के लिये नरबलि की प्रथा थी। लेकिन जब एक वृद्धा के इकलौते पोते की बारी आई तो उसने उसे बचाने के लिये देवी से प्रार्थना की। देवी उसकी आराधना से खुश हुई और उसके पोते को जीवनदान दिया लेकिन साथ ही शर्त रखी कि एक व्यक्ति के बराबर ख़ून उसे चढ़ाया जाए। तभी से पत्थरमार (पाषाण) युद्ध में खून बहाकर देवी को प्रसन्न किया जाता है. इस पत्थरमार युद्ध को लोकल भाषा में “बग्वाल” कहा जाता है।
जिसमें चार खाम सात लोक के लोग भाग लेते हैं। पिछले दो वर्षो से सुप्रीमकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद बग्वाल में पत्थरों की जगह फल और फूलों का प्रयोग किया जाता है तथा रक्त दान शिविर लगाया जाता है। मेले में देश विदेश हजारों की संख्या में श्रद्धालु और पर्यटक मेला देखने पहुंचते हैं।
मंदिर में महाभारत कालीन अवशेष भी देखने को मिलते हैं जिसमें एक भारी भरकम शिला है जिसे भीम शिला कहा जाता है। सैलानियों के बीच भी बग्वाल का आकर्षण बढ़ता जा रहा है। फूल- फलों की इस तूफानी बरसात से डर भी लगता है लेकिन सबसे ज्यादा कौतूहल की बात ये है कि लोगों को चोट आती है, गिरते हैं लेकिन फिर इस खेल में शामिल हो जाते हैं।
बगवाल देवीधुरा मेले को ऐतिहासिकता कितनी प्राचीन है इस विषय में मत-मतान्तर हैं। लोक मान्यता है कि किसी समय देवीधुरा के सघन बन में बावन हजार वीर और चैंसठ योगनियों के आतंक से मुक्ति देकर स्थानीय जन से प्रतिफल के रुप में नर बलि की मांग की। जिसके लिए निश्चित किया गया कि पत्थरों की मार से एक व्यक्ति के खून के बराबर निकले रक्त से देवी को तृप्त किया जाता था, लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फव्यार्ल जातियों द्वारा चंद शासन तक यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी।
इतिहासकारों का मानना है कि महाभारत में पर्वतीय क्षेत्रों में निवास कर रही एक ऐसी जाति का उल्लेख है जो अश्म युद्ध में प्रवीण थी तथा जिसने पाण्डवों की ओर से महाभारत के युद्ध में भाग लिया था । ऐसी स्थिति में पत्थरों के युद्ध की परम्परा का समय काफी प्राचीन ठहरता है ।
कुछ इतिहासकार इसे आठवीं-नवीं शती ई. से प्रारम्भ मानते हैं । कुछ खस जाति से भी इसे सम्बिन्धित करते हैं ।
बगवाल की इस परम्परा को वर्तमान में महर और फव्यार्ल जाति के लोग ही अधिक सजीव करते हैं। इनकी टोलियाँ ढोल, नगाड़ो के साथ किंरगाल की बनी हुई छतरी जिसे छन्तोली कहते हैं, सहित अपने-अपने गाँवों से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण में पहुँचती हैं । सिर पर कपड़ा बाँध हाथों में लट्ठ तथा फूलों से सजा फर्रा-छन्तोली लेकर मंदिर के सामने परिक्रमा करते हैं । इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं ।
देवीधुरा मंदिर की मान्यताये
मंदिर के गुफा प्रवेश द्वार पर दो विशाल और सकरी चट्टानें हैं जिनके बीच से निकले के लिए बहुत ही कम जगह है। दोनो चट्टानों के मध्य के खाली जगह पर ही “देवी पीठ” है। माँ वाराही देवी के मुख्य मंदिर में तांबे की पेटिका में मां वाराही देवी की मूर्ति है। माँ वाराही देवी के बारे में यह मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति मूर्ति के दर्शन खुली आँखों से नहीं कर सकता है क्युकी मूर्ति के तेज से उसकी आँखों की रोशनी चली जाती है. इसी कारण “देवी की मूर्ति” को ताम्रपेटिका में रखी जाती है।
सांगी पूजन का महत्व
इस मेले की शुरुआत श्रावण शुक्ल एकादशी को इस युद्ध में भाग लेने वाले महर एवं फड़त्यालों के क्षत्रिय कुलों के चारों खामों तथा सातों थोकों के मुखिया लोग मां बाराही देवी के मंदिर के पुजारी को साथ लेकर नियत मुहूर्त में मंदिर में स्थित देवी के डोले का पूजन करते हैं जिसे सांगी पूजन कहा जाता है।
सांगी पूजन से पूर्व सातों थोकों के मुखिया बाराही देवी के मंदिर में सुरक्षित ताम्रपेटिका को जिसके तीन खानों में मां बाराही, मां महाकाली व मां महासरस्वती की प्रतिमायों बंद हैं। उनको भण्डा़र गृह से उतारकर नंद घर ले जाते हैं । अगले दिन मूर्तियों को स्नान कराया जाता है। मंदिर के पुजारी व बांगर जाति के व्यक्ति की आंखों पर काली पट्टी बांधकर मूर्तियों को पर्दे के पीछे निकालकर दुग्ध स्नान कराया जाता है। फिर इनका श्रृंगार करके पुनः इनको ताम्रपेटिका में बंद कर के डोले के रूप में इस के समीप ही स्थित मुचकुंद आश्रम ले जा कर उस की परिक्रमा करने के बाद पुनः वही पर मंदिर में रख दिया जाता है।
देवीधुरा का तापमान
पहाड़ी छेत्र में बसे होने के कारण माँ बाराही मंदिर के आसपास का तापमान बहुत ही सुहाना और मनमोहक होता है. मंदिर के चारों और लंबे उँचे देवदार के पेड़ मंदिर की शोभा में चार चाँद लगते है. मंदिर परिसर के आसपास बहुत हरियाली और शांत वातावरण है जो किसी को भी अपनी तरफ मोह ले. देवीधुरा का तापमान हमेशा ही श्रधालुओं और पर्यटकों के अनुकूल रहता है (Best Time to visit Devidhura Temple). आप यहाँ कभी भी मां बाराही धाम के दर्शन करने जा सकते हैं लेकिन मंदिर दर्शन के लिए साल में सबसे अच्छा समय रक्षाबंधन में लगने वाले मेले का है.
देवीधुरा में पर्यटन (दर्शनीय) स्थल
माँ बाराही मंदिर देवीधुरा के आसपास बहुत से दर्शनीय या पर्यटक स्थल हैं जिनमें लोहाघाट और चंपावत जैसे खूबसूरत हिल स्टेशन हैं जहाँ आप गर्मियों के दिनों में घूमने जा सकते हैं. इन दोनों ही हिल स्टेशन में तापमान सालभर बहुत ही सुहाना और लुभावना बना रहता है. इन दो हिल स्टेशन के अलावा आप मायावती आश्रम लोहाघाट जिसे अद्वैत आश्रम (Advaita Ashram Mayavati) नाम से भी पुकारा जाता है के दर्शन कर सकते हैं. यह आश्रम स्वामी विवेकानंद संस्थान के नाम से भी जाना जाता है. इसके अलावा आबॉट माउंट (Abbott Mount), बाणासुर का किला (Banasur Fort), फर्न हिल चानमारी (Fern Hill Chanmari), पंचेश्वर मंदिर (Pancheshwar) देखने जा सकते हैं.
माँ वाराही देवी मंदिर के मंदिर की मान्यताओं के अनुसार यह भी कहा जाता है की महाभारत काल में यहाँ पर पाण्डवों ने वास किया था और पहाड़ी के छोर पर खेल-खेल में भीम ने शिलायें फेंकी थी। ये शिलायें ग्रेनाइट की बनी हुई थी और इन्ही शिलाओं में से दो शिलायें आज भी मन्दिर के द्वार के निकट मौजूद हैं । इन दोनों शिलाओं में से एक को “राम शिला” कहा जाता है और इस स्थान पर “पचीसी” नामक जुए के चिन्ह आज भी विद्यमान हैं, और दूसरी शिला पर हाथों के भी निशान हैं।