आज सुबह से मुझे अल्मोड़ा वाले घर की बहुत याद आ रही है और साथ ही याद आ रही है हमारे बगल वाली कैजा, यादो पर किसीका बस तो नहीं, न कोई रोकटोक है इनकी आवाजाही पर, इसलिए मेने अपने को पूरी तरह यादो के हवाले कर दिया और सोचने लगा अपनी प्यारी कैजा के बारे में।
वैसे कैजा का मतलब माँ की बहन से होता है, लेकिन मेरी कैजा जगत कैजा थी। हमारे पूरे चंपा नौला में सब कोई उनको कैजा ही कहता था, सब के मुह से उनके लिए कैजा सम्बोधन सुनते सुनते वो मेरी भी कैजा बन गयी। सारी दुनिया मुझे राजू कह कर संबोधित करती थी और उस ज़माने में राजू इतना कॉमन नाम था की हर चार में एक राजू, हमारा झाड़ू वाला, नाई, सब राजू ऐसे राजू मय वातावरण में कैजा मुझे राज कह कर संबोधित करती थी और ये भी एक प्रमुख कारण था कैजा का मेरे प्रियजनों में एक होने का।
कैजा के पति स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे एवम् जीवन यापन हेतु चाय की दुकान चलाते थे, ये वो वक्त था जब राजनीति अपने फायदे के लिए नहीं वरना देश भक्ति की भावना से की जाती थी उसी भावना के साथ बड़बाजू कई बार जेल भी गए थे, सीधे सच्चे हमारे बड़बाजू ने कभी इन बातो का राजनेतिक लाभ नहीं लिया। कमाई सीमित और उत्तरदायित्व अधिक और घर गृहस्थी की सारी जिमेवारी कैजा के कंधो पर होती थी। कैजा का भरा हुआ लाल चेहरा माथे पर बड़ी सी गोल बिंदी और मुस्कराहट जैसे उनकी पहचान थी, सुबह चाय बनाने से शुरू होकर दिन में एक बजे खाना बनाने और बर्तन धोने पर खत्म होती थी फिर कपडे धोने का कार्यक्रम लगातार दिन की चाय और रात के भोजन की तैयारी, सच मानिये कैजा को चूल्हे से बहार देखकर आश्चर्य होता था कि ये बहार कैसे और जनाब वही मुस्कुराता चेहरा इतना काम करने के बाद।
कैजा के छोटे से दो कमरो में मेहमानो की आवाजाही लगी रहती थी, उन दिनों पूरी आगरा यूनिवर्सईटी में बीएड केवल अल्मोड़ा में था इसलिए उनके घर दो एक मेहमान अल्मोड़ा बीएड करने वाले होते थे, जैसे ही कोई बीएड करके जाते, दूसरे दो और आ जाते लेकिन कैजा ने कभी अपने बच्चों और उनमे भेदभाव नहीं किया। उधर बड़बाजू के राजनेतिक संबंधो को भी कैजा को ही झेलना पड़ता था। हमेशा कोई न कोई बिन बुलाया मेहमान खाना खाने उनकी रसोई में होता, सच में अन्नपूर्णा थी हमारी कैजा सब भोजन करके जाते, तृप्त होकर जाते और ऐसा लगता था के वो अपने सिक्स्थ सेंस के जरिये जान जाती के आज कितने बिन बुलाये मेहमानो ने आना है, कभी खाना कम पड़ते नहीं सुना। पाक कला में उनका कोई सानी न था, कैजा के बनाये डुबुको और रस का स्वाद आज भी मेरे मुह से नहीं गया। जब भी वो कुछ विशेष बनाती मेरे लिए अवश्य आ जाता। इन सब के अलावा सारे मोहल्ले के दुःख में सुख में, काम में काज में कैजा सबसे पहले खड़ी मिलती।
बड़ी – मुंगोड़ी बनाने की कला हो या किस्से कहानिया, रामलीला हो या होली कैजा सबमे हम बच्चों को साथ लेकर चलती, दिन भर काम करने के बाद रात दो बजे तक हम लोगो को नंदादेवी की रामलीला दिखाना कैजा के हो बस का काम था, दुसरे दिन रात को देखी गई रामलीला के पात्रो का हू ब हू अभिनय कर कैजा उनको भी प्रसन्न कर देती जो रामलीला देखने नहीं आ पाये। उनकी वाक्पटुता और कविता रचने की कला आज समझ आती है। असमय पुत्र की मृत्यु ने उन्हें तोड़ के रख दिया पर नाती पोतो के लिए कैजा अंत तक संघर्ष करती रही।
आज कैजा तो नहीं है पर जब भी बचपन याद आता है एक हँसता मुस्कुराता चेहरा आँखों के सामने घूम जाता है जिससे कोई खून का रिश्ता तो न था पर ऐसा रिश्ता था जो खून के दिखावटी रिश्तो से हजार गुना बड़ा था।
AlmoraOnline.com के नए पोस्ट के तुरंत अपडेट पाने के लिए Whatsapp से जुड़ने के लिए क्लिक करें।
Facebook पेज से जुड़ने के लिए क्लिक करें।
Facebook ग्रुप से जुड़ने के लिए क्लिक करें।
Youtube चैनल से जुड़ने के लिए क्लिक करें।
आपको यह लेख कैसा लगा, LOGIN WITH FACEBOOK बटन पर क्लिक कर अपनी टिप्पणी दें। धन्यवाद।