तब लोग मिलन चौक में लाला बाजार से थाना बाजार तक तो लगभग रोज ही घूम आते। अब भी शायद जाते हों। यह हैं अल्मोड़ा का मशहूर मिलन चौक, नाम के अनुरूप – यहाँ रोड के किनारे खड़े हो, मित्रो, परिचितों के मध्य अक्सर अनौपचारिक मीटिंग्स हुआ करती।
उस दिनों जब हम अपनी स्कूली दिनचर्या फॉलो करते – करते उसे नियमित रूप से सांस लेने, भोजन करने की तरह आवश्यक मान बैठे थे – के बाद – अचानक कॉलेज पहुंचे – तो महसूस हुआ – कि अब स्कूल और घर के बीच की सड़क के अलावा और भी कई रास्ते हैं… और उनके बीच कई गलियां भी हैं…
बीस – पच्चीस साल पहले, जब चार – छह किलोमीटर चलना, बेहद छोटी दूरी मानी जाती थी, और इतनी कम दूरियां पैदल ही तय होती थी।
तब तक तक दुपहिया – चौपहिया अल्मोड़ा में इतने प्रचलन में नहीं आये थे, अल्मोड़ा स्नातकोत्तर कॉलेज कैंपस की पार्किंग मे बमुश्किल चार – पांच दुपहियाँ वाहन खड़े दिखाई देते थे।
अल्मोड़ा की भौगोलिक सरंचना अल्मोड़ा के लोगों को – ट्रैकिंग के प्राकर्तिक रूप से तैयार करके रखती, हर जगह पहुंचने के लिए कितनी ही सीढियाँ।
राह में मिलने वाले – अक्सर परिचित अथवा मित्र बन जाया करते थे, परिचित मित्र अपने दूसरे मित्रो से मिलाते – और सोशल नेटवर्किंग डेवेलप हो जाया करती थी और फ्रेंडशिप नेटवर्क का दायरा बड़ा होता रहता।
बिना मोबाइल के भी – सभी जरुरी लोग शाम को बाजार में घूमते हुए मिल जाते, ज्यादातर मिलन चौक से रघुनाथ मंदिर के बीच, जरुरत हुई तो राह में चलते परिचित लोग बता देते फलां – फलां वहां है।
सोशल ग्रुप्स तब मोहल्ले हुए करते थे, और मोहल्ले के बहिर्मुखी लड़के – वहां के एडमिन।
कमेंट, लाइक्स, डिस लाइक्स सजीव हुआ करते थे, इमोजी की जगह लाइव स्माइल्स, इमोशन ‘शब्दों’ की जगह दिल से निकलते और किसी डिजिटल स्टोरेज की जगह मेमोरीज में सेव हो जाते।
कॉलेज पहुंचने के बाद यह विशेष परिवर्तन सबसे पहले नोटिस किया किं – अब ऐसे सवालो के जवाब – घर में कम लिए जाते!
कि आज क्या पढ़ा कॉलेज में?
देर क्यों हुई या
जल्दी कैसे आ गये?
और शायद यह माना जाने लगा था – कि हमारी उम्र परिपक्वता की सीमा में पहुंच चुकी और हम अपना भला बुरा खुद समझ सकते हैं – सो इस बात को भी नज़र अंदाज़ किया जाने लगा – कि हमारे कॉलेज जाने – आने का वक्त क्या है? और हम जाते है भी या नहीं?
इस सब से हम भी कुछ बेपरवाह हो चले थे, पहले दस से चार बजे के बीच जो कॉलेज के नाम, घर से निकलकर, मित्रो के साथ तफरीह करने में जो वक्त बिताते, उसका विस्तार होता गया, और घर में रुकने का समय सिमटने लगा।
रोज के कार्यक्रमों में सांयकालीन भ्रमण दिनचर्या का हिस्सा था, अपने मित्र के साथ आने वाले कल की कल्पनाये और बीते कल की समीक्षा करते हम लोअर मॉल रोड से पैदल भ्रमण करते खत्याड़ी, करबला होते हुए कभी ब्राइट एन्ड या ब्राइटन कार्नर (अब विवेकानंद कार्नर) में रामकृष्ण कुटीर में महाराज के साथ कुछ समय बिताते, वहां की लाइब्रेरी में पुस्तके पड़ते, और कभी आश्रम में चूड़ा प्रसाद लेकर, वहां के शांत वातावरण में कुछ पल बिता ऊर्जा से अपने को भर वापस लौट जाते।
कभी घूमने का रूट कर्नाटक खोला, पांडे खोला, लक्ष्मेश्वर, जाखनदेवी होते हुए, मिलनचौक का होता, कभी कर्बला होते हुए – डयोली डाना मंदिर, तो कभी करबाला दुगालखोला होते हुए अफसर कॉलोनी और हुक्का क्लब। कभी टहलने की जगह होती कैंट एरिया, वहां की सुरम्यता और शांति – शाम के पलों में शहद घोलती।
पैदल चल कर डयोली डाना, कसारदेवी, चितई अक्सर घूम आया करते। अल्मोड़ा में रहने वाले प्रकृति से प्रेम में पड़ ही जाते हैं।
अल्मोड़ा उस समय टहलने और पैदल चलने के लिए जन्नत से कम नहीं थी, अब भी टहलने के लिए जगह तो बहुत हैं – लेकिन हर वक्त चलने वाले दूपहियों, चौपहियों की आवाजे, हॉर्न सहज और शांत नहीं होने देती है।
कभी कभी कारखाना बाजार में दूध – जलेबी, कसारदेवी में मोमो, कभी शाम ग्लोरी रेस्टॉरंट में गप्पे मारते, दोस्तों के साथ हैंगऑउट होता।
चिर – परिचित आवाज़ में और भय्यु ठीक हैं?” हालचाल लेते हुए अपनी सदाबहार मुस्कुराहट के साथ, मम्मू दा (अल्मोड़ा के मशहूर पान भंडार के स्वामी) से मुलाकात होती।
अल्मोड़ा से आप कही जाते थे, तो आतिथ्य सत्कार करने वाले यहाँ की बाल मिठाई, चॉकलेट, सिंगोड़ी की उम्मीद करते थे, और हो सके तो खीम सिंह मोहन सिंह की।
हीरा सिंह जीवन सिंह और दूसरी कई मिठाइयों की दुकानें भी प्रसिद्ध थी। लाला जोगा साह के यहाँ बने खेचुवे भी बड़े माउथ मेल्टिंग होते थे। उम्मीद है अब भी होंगे।
कभी विवेकानंद कार्नर में मिर्जा के लाजवाब बर्गर, वैसे या तो वो बर्गर इतने ही डिलीशियस थे या – प्रकर्ति से घिरी उस शांत जगह जो अल्मोड़ा के कोने में थी, और हमे बेहद पसंद थी, का जादू था।
ब्रिटिश काल के पुराने और बूढ़े होते जर्जर भवन में मिर्जा का कैफ़े चला करता था, – शाम 3 से कुछ 7 या 8 बजे तक, रेडियो पर एफ एम् और विविध भारती ट्यून रहता था, और उम्दा संगीत शाम में रंग भर देता।
खुले आसमान के नीचे कुछ लोहे और टिन की नीले रंग की मजबूत चेयर लगी होती।
आकाशवाणी में उन दिनों कभी कभार कुछ आर्टिकल बोल आया करते थे, जिससे कॉलेज के दिनों में थोड़ा सा जेब खर्च निकल आता था।
कॉलेज का वह समय – जब खुली आँखों से सपने देखा करते थे और नयी मिली आज़ादी का सुख भरपूर आनंद ले चुके थे, स्नातकोत्तर की की पढाई ख़त्म होने को थी।
इन्ही दिनों चौघानपाटा में नैनीताल के एक प्राइवेट बस ऑपरेटर की लक्ज़री बस भी दिल्ली के शुरू हुई थी। उस समय तक दिल्ली जाने के लिए रोडवेज़ की साधारण बस ही इस रूट पर ऑप्शन थी, इस प्राइवेट एयरकंडिशन्ड बस से दिल्ली जाने का अनुभव नया और खास हुआ करता था। किराया लगभग दुगना होता था और कुछ दिन पहले से सीट रिज़र्व करानी होती।
चौघानपाटा में जितने लोग इस बस से जाते, उससे ज्यादा उन्हें छोड़ने वालों की भीड़ होती, जैसे कोई विदेश जाने घर से निकला हो और छोड़ने वाले किसी एयरपोर्ट आये हो। इस प्राइवेट लक्ज़री बस का लाभ यह हुआ कि लड़कियों को भी उनके अभिभावक अकेले दिल्ली भेजने की हिम्मत करने लगे थे। और रोजगार अथवा पढाई के लिए दिल्ली एनसीआर अल्मोड़ा के कुछ और करीब हो गया।
अल्मोड़ा में सिंगल स्क्रीन थिएटर पहले रीगल, बाद में जागनाथ बंद हुआ, मोबाइल फ़ोन्स का प्रादुर्भाव हुआ। दुनिया एनालॉग से डिजिटल की और बढ़ने लगी और हम भी समय के साथ खुद को बहते देखते रहे।
कॉलेज के दिनों में – कैरियर की चिंता भी जरुरी हो जाती, साथ – स्टूडेंटन्स अपनी क्षमता – योग्यता – अवसरों के अनुसार अपने भविष्य की तैयारियां शुरू करते।
बदलाव जब तक नयापन लिए होता हैं, अच्छा लगता हैं, और जैसे – जैसे इसके साथ ढल जाते – इसका आनंद भी जाता रहता हैं, हाँ कॉलेज टाइम के इस आनंद को जाते – जाते कुछ तीन – पांच साल लगे, और तब ख्वाहिशे पैसे की जरुरत के पास आकर घुटने टेक देती हैं, और जरुरत – पैसे कमाने की चतुराई में बदल जाती हैं।
अभिव्यक्ति जितनी मुखर और प्रभावी – कामयाबी उतनी बढ़ी, कॉलेज में लगे पंख और ढेरो हसरते नौ से छह की ऑफिस लाइफ में ढल कब दम तोड़ देती हैं, सालों बाद कभी रूककर पीछे देखने का वक्त मिलता हैं, तब मालूम पड़ता हैं।
इसके बाद हालत ऐसे हुए कि अल्मोड़ा छोड़ना पड़ा पर अल्मोड़ा छूटता कहाँ है… यादों में, किस्सों में और दिल में हमेशा रहता है। www.almoraonline.com में लेख पढ़ने के लिए आपका आभार।
लिखने को बहुत कुछ हैं – कुछ कहानियां भी हैं सुनाने को, लेकिन शेष, आपकी प्रतिक्रिया पर।
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This post really reminded me about my beautiful Almora during my school and college days! Lovely post!
Thanks you so much for your words 🙂