कभी-कभी रवि पास के जंगल में पैदल सैर के लिए निकल जाता था। दूर गाँव की ओर जाने वाले जंगल के रास्ते में ताजी हवा मिलती, और प्रकृति के साथ समय बिताने का मौका भी। पेड़ों पर उछल-कूद करते या करतब दिखाते पक्षी भी दिख जाते थे। आज भी रवि निकला था। मुख्य सड़क की बजाय पैदल रास्ता चुनने से सैर और खूबसूरत हो जाती थी।
एक छोटी-सी पहाड़ी पर बनी पगडंडी से होकर वह गुजर रहा था। कुछ दूर चलने पर एक खाई जैसी जगह पर दो-तीन बकरियाँ चर रही थीं। समीप ही चरवाहा पास के एक पेड़ की ऊँची शाखों से हरी पत्तियाँ चुन रहा था। इन बकरियों के डिनर के लिए।
बकरियां जिस ढलान पर थी अंदाजन 50-60 डिग्री का था। वे इतनी आसानी से चल रही थीं और झाड़ियों व घास को चर रही थीं, जैसे उनके लिए कोई यह समतल मैदान हो। रवि ने उनकी कुशलता से मुग्ध होकर सोचा, कितनी कुशल पर्वतारोही हो सकती थीं ये, अगर चाहतीं, तो कितने अवॉर्ड अपने गले में लटका कर घूमतीं। लेकिन इन्हें न किसी को प्रमाणित करने की चिंता थी, न दुनियावी दौड़ का हिस्सा बनकर अपना रक्तचाप बढ़ाना-घटाना। बस अपनी स्वाभाविकता में जी रही थीं, और हम दिखावे में।
फिर रवि ने चरवाहे द्वारा इकट्ठा की गई पत्तियों की एक छोटी शाख उठा ली। दूसरे की संपत्ति से दान करते हुए, बकरी के अनुग्रह का पात्र बनने की उम्मीद में, उसने ढलान में सबसे ऊपर चर रही बकरी को आवाज दी और पत्तियाँ दिखाते हुए उसे आकर्षित किया। जब उसने रवि की ओर देखा, तो उसने पत्तियों से भरी शाख नीचे को उछाल दी। वह तेजी से चढ़ते हुए उन पत्तियों की ओर लपकी, जैसे छोटे बच्चे किसी पसंदीदा चीज की तरफ दौड़ते हैं। लेकिन रवि के मन में एक हल्की चिंता उभर आई। जहाँ पत्तियाँ गिरीं, वहाँ ढलान और भी तीव्र था, लगभग 70-80 डिग्री। वहाँ पहुँचने का कोई मार्ग नहीं था, और उसे लगा कि पत्तियाँ उछाल कर उसने शायद गलत किया। अगर वह बकरी फिसली, तो क्या होगा?
लेकिन बकरी कुशलता से उन पत्तियों तक पहुँच गई, उनका स्वाद लिया, और आसानी से वापस नीचे की ओर बाकी बकरियों के पास चली गई। रवि ने राहत की साँस ली।
कुछ और दूरी तय करने के बाद रवि एक जगह विश्राम के लिए बैठ गया। उसने थैले से पानी की बोतल निकाली, कुछ घूँट पीकर वापस रख दी। थैला पेड़ के सहारे रखकर उसने आरामदायक स्थिति बनाई और सुस्ताने लगा। जिस पहाड़ी पर वह बैठा था, वहाँ से थोड़ी दूरी पर नीचे सड़क का एक मोड़ था।
सुनसान जगह थी। वाहनों की आवाजाही कम थी। कभी-कभार ही कोई दुपहिया या चौपहिया गुजरती। अगर कोई वाहनों की गिनती करे, तो शायद घंटे भर में दहाई तक भी न पहुँचे।
वहाँ एक व्यक्ति अकेला खड़ा था, सामान्य ग्रामीण वेशभूषा में, अपने जीवन की मध्य उम्र में – न उसे युवा कहा जा सकता था, न वृद्ध। शायद आसपास के किसी गाँव का होगा। ऐसी जगह बैठकर, बिना दिमाग पर ज्यादा जोर डाले, जो कुछ सामने दिखे, वह किसी रोचक सिनेमा या घटना से कम नहीं लगता। हालांकि, हर बार जो सामने दिख रहा हो, कोई कहानी बन जाए, ऐसा जरूरी नहीं।
तभी एक टैक्सी वहाँ रुकी। छत पर कुछ सामान बंधा था, और उसमें कुछ और सवारियाँ भी थीं। ड्राइवर ने उम्मीद भरी नजरों से उस व्यक्ति से कुछ पूछा, शायद यह सोचकर कि उसे एक सवारी मिल जाएगी। रवि को ड्राइवर की नजरें तो नहीं दिखीं, क्योंकि उसे टैक्सी का पिछला हिस्सा दिख रहा था। लेकिन अपनी कल्पना से उसने ऐसा अनुमान लगाया। वैसे, उसने ड्राइवर का सवाल भी नहीं सुना। फिर भी, उस व्यक्ति के जवाब से ड्राइवर के सवाल का अंदाजा लगा लिया।
वहाँ खड़े व्यक्ति ने कहा, “नहीं, अभी दो और लोग आने वाले हैं, उनका इंतजार कर रहा हूँ।” ड्राइवर ने कुछ और बातें कीं, ताकि उसे थोड़ा और समय मिल जाए और वे लोग आ जाएँ, या वह व्यक्ति मान जाए और टैक्सी में बैठने को तैयार हो जाए। लेकिन दूसरी सवारियाँ भी थीं, तो वह कितना इंतजार कर सकता था। टैक्सी आगे बढ़ गई।
रवि का छोटा-सा विश्राम अब पूरा हो चुका था। वह आगे चल पड़ा। 30-35 कदम चलने के बाद उसे याद आया कि उसकी पानी की बोतल तो पीछे छूट गई। वह वापस उसी जगह लौटा, जहाँ सुस्ता रहा था। नीचे सड़क की ओर देखा, वह व्यक्ति अब भी अकेला खड़ा था।
रवि ने अपना थैला उठाया। चलने से पहले सड़क की ओर एक बार फिर देखा। तभी वहाँ एक बस रुकी। वह व्यक्ति उस पर चढ़ा, बस आगे बढ़ गई। – वह व्यक्ति बस का ही इंतजार कर रहा था, जिसका किराया कम होता है। फिर भी, टैक्सी ड्राइवर को बुरा ना लगे, अपनी सहृदयता दिखाते हुए सीधे मना न कर “दो लोगों” के इंतजार की बात कही होगी। इस विचार के साथ रवि मुस्कुराते हुए आगे की सैर के लिए निकल गया।