जनाब, न तो आजकल के समान सुविधाएं थीं और न ही उस समय की सुविधाओं का उपभोग करने की सामर्थ्य। पॉकेट मनी बस नाम मात्र को मिलती थी, वरना जेब खर्च तो बाजार से लाए जाने वाले सामान में हेराफेरी से ही चलता था। पुस्तकों ने भी जेब खर्च की कमी को पूरा करने और अचानक आई पैसे की जरूरत को पूरा करने में हमेशा साथ निभाया। सारी पुस्तकें तब डिग्री कॉलेज की लाइब्रेरी से मिल जाया करती थीं। अचानक पैसे की जरूरत पड़ने पर बाबूजी से इतनी बड़ी रकम मिलना लगभग असंभव होता था। तब किताब की खरीद और पढ़ाई पर उस किताब के न होने से पड़ने वाले विपरीत प्रभाव पिताजी का ह्रदय पसीज देने वाला सबब बन जाते और पचास सौ रूपिए तुरंत मिल जाते। बुक बैंक से प्राप्त किताब दिखाकर घरवालों को संतुष्ट भी कर दिया जाता कि किताबें खरीद ली गईं। ये धनराशि हमारे अचानक आए खर्चे का तुरंत निदान बनती।
जनाब जब आनन-फानन में टंडन साहब ने बिनसर का कार्यक्रम बनाया तो पैसों की परेशानी दूर की किताबों ने। तय हुआ कि दो किलो मुर्गा वही बनेगा और बनाएंगे हमारे लल्लू शाह जो आज हुक्का क्लब और कुमाऊंनी फिल्मों के जाने-माने कलाकार हैं। मुकेश भाई की वो पहली बिनसर यात्रा थी। सारे मित्रों की कोशिश थी कि यह बिनसर का ट्रिप अविस्मरणीय बन जाए। इस बहाने मुकेश भाई हम लोगों को याद रखें।
सारे मित्र अपने-अपने घरों में अपने-अपने तरीकों से एक रात और दो दिन गायब रहने के बहाने तलाशने लगे। पैसों के इंतजाम की टेंशन वो अलग। दो-दो फ्रंटों पर घरवालों से लड़ाई लड़कर अगले दिन नियमित समय पर मित्रों का जमावड़ा पूरी पराठे, उबले अंडे, फल जो भी घरवालों से मिला समेटकर पित दा की दुकान एकत्र हुआ, जिसे आज मिलन चौक का नाम दिया गया है। पित दा से अपना खाता चलता था। दो पैकेट सीजर्स सिगरेट के लेकर पिट्ठू में रख निश्चिंतता के भाव से अगले इंतजामों की और ध्यान जाने लगा। सारे मित्रों के पहुंचते ही रात के खाने में मुर्गे का इंतजाम किया। पैसे जमा कर मुर्गा और मसालों की रकम लल्लू के हवाले की गई। मन ही मन स्वादिष्ट मुर्गे की कल्पना कर हमारा कारवां नारायण तिवारी दीवाल होते हुए कसार देवी और बिनसर की तरफ बढ़ने लगा।
मित्रों, आपसी बातों, टंडन साहब के किस्से कहानियों में खोए हम कब कफड़ खान पहुंच गए पता ही नहीं चला। टंडन साहब और मुकेश भाई सगे भाई थे, पर दोनों के मांसाहारी जोक सुनकर यकीन नहीं होता था कि एक के बाद एक हर विषय पर एकदम ताजा तरीन जोक ये लाते कहां से हैं। सच में हम उनके इस ज्ञान की थाह तक नहीं पा पाए। दोनों भाइयों में धाराप्रवाह प्रतियोगिता होती, एक के बाद एक नए-नए जोक सामने आते और सारे मित्र पेट पकड़ लोटते नजर आते। जहां कहीं शीतल पेड़ों की छांव दिखती, सारे मित्र थकान मिटाने को आराम फरमाते और जम जाती महफिल उस जमाने के गानों की… “कोई जब तुम्हारा ह्रदय तोड़ दे” से लेकर “जाय तो जाय” तक ऐसा लगता कि सारे सेंटीमेंट्स आवाज बनकर मित्रों के दिल से निकल रहे हैं। शाम हो जाती है, हमारा कारवां पहुंच जाता है बिनसर के फॉरेस्ट रेस्ट हाउस। सबसे पहले रेस्ट हाउस के एकमात्र चौकीदार कम खानसामा कम वेटर कम मैनेजर हीर दा से ऐसे मिले गए जैसे बरसों बाद कोई अपना मेले में टकरा गया हो। उनके घर-परिवार की खबर लेते-लेते जब ये पक्का हो जाता है कि आज फॉरेस्ट रेस्ट हाउस नितांत खाली है और शाम तक किसी अधिकारी के आने का कोई कार्यक्रम हीर दा के पास नहीं है तो लगता मानो स्वर्ग पा लिया। रहने-खाने की समस्या दूर हुई, वरना सारे रास्ते यही डर सता रहा था कि गेस्ट हाउस बुक हुआ तो क्या होगा। अब तो हीर दा और भी प्यारे लगने लगे। हमारे द्वारा हीर दा को भेंट की गई रम की पावी ने अचानक हीर के दिल में हम सबों की इज्जत में अफज़ाई की और हीर दा जुट गए हमारे रहने-खाने के इंतजाम के लिए। हीर दा बस रोटी बना देना, मुर्गा लल्लू शाह बनाएंगे, की उद्घोषणा के साथ हीर दा का चेहरा और चमक गया, मानो शाम तक पावी खत्म भी हो गया तो क्या साहब लोग इंतजाम के साथ आए हैं।
अपने-अपने कमरों में सामान डाल चाय की महफिल जमी बाहर लॉन में। उधर लल्लू शाह ने मोर्चा संभाल लिया विधि-विधान से मुर्गा पकाने का। प्याज, लहसुन, मसाले लल्लू के द्वारा मनोयोग से एकत्र किए जाने लगे। हीर दा भाग-दौड़ कर उन अवयवों को इकट्ठा करने का भरसक प्रयास कर रहे थे जो साहब जी लाना भूल गए थे। अविश्वसनीय तो है, पर जावित्री और जायफल तक हीर दा ने बिनसर के वीराने में उपलब्ध करा दिया, जो कुछ दिन पहले हुई फॉरेस्ट के किसी खाने-पीने के शौकीन अफसर के लाए मसालों से बच गई थीं। हीर दा के इमरजेंसी कोश से जावित्री-जायफल का मिलना शुभ संकेत था कि मुर्गा तो अब लजीज ही बनेगा। शाह जी ने मुर्गे के टुकड़े भूनते-भूनते सारा हिसाब-किताब लगाकर उद्घोषणा कर दी थी कि हर एक के हिस्से में हीर दा को शामिल करने के उपरांत तीन-तीन पीस मुर्गे के आएंगे, बाद में मत कहना कि कम पड़ गया।
इधर महफिल जम चुकी थी, हंसी-ठिठोली, किस्से-कहानियों के बीच जब भी मुर्गे के भूनते मसालों की खुशबू आती, मन ललच जाता, भूख बढ़ने लगती। हीर दा थोड़ा चावल भी बना देना, सोचा मुर्गे के मीट के साथ चावल का स्वाद और भी आनंददायक होगा। इधर शाह जी भी मुर्गा तैयार कर महफिल की शोभा बढ़ाने लगे और उनके किस्से-कहानियों के जखीरे से एक से एक नायाब किस्सा बाहर आने लगा। सारे मित्र सिवाय वकील साहब के, प्रसन्न मुद्रा में हंसते-खिलखिलाते बिनसर की शाम का आनंद ले रहे थे। बेचैन वकील साहब थोड़ी-थोड़ी देर में महफिल छोड़ किसी वीराने में चले जाते, अनमने से आते फिर थोड़ी देर में उठकर कहीं चले जाते।
वकील साहब के इस अनमनेपन का राज तब समझ में आया जब मुर्गा परोसते समय एक-एक टुकड़ा सबको परोसने के बाद सौजू कड़ाई बजाने लगे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि तीन-तीन टुकड़ों का हिसाब मात्र एक-एक टुकड़ा सबकी प्लेट में जाने के बाद कड़ाई बजाने वाली नौबत तक कैसे आ गया। रसोई में किसी जानवर के घुसने की संभावनाएं भी नगण्य थीं। तब जाकर समझ में आया कि वकील साहब बीच-बीच में उठकर कहां जा रहे थे और उनकी असहजता उस सहजता के ऊपर पर्दा मात्र थी, जिसकी आड़ में उन्होंने सबके तीन टुकड़ों की बंदरबांट को मात्र एक टुकड़े तक पहुंचा दिया। मन ही मन सबने वकील साहब को कोसते हुए शोरबे के साथ रोटी खाई और चावल जीमे।
बदला लेने की मेरी प्रबल इच्छा से मेरा अपने गुस्से पर काबू न रहा और मैं वापस अल्मोड़ा जा रहा हूं, कहकर गहरी काली रात और जानवरों से भरे घने जंगल की परवाह न कर मैं निकल पड़ा अकेले अल्मोड़ा के लिए। अगले ही मोड़ पर सियार की आवाज ने जोश ठंडा कर दिया और पीछे के रास्ते किसी को बताए बिना एक खाली कमरे में जाकर सो गया। उधर जब पंद्रह-बीस मिनट तक मेरी वापसी नहीं हुई तो मित्रों के किस्से-कहानियां बंद हुए और कहा-सुनी होने लगी। चिंता सारे मित्रों को सताने लगी। अंततः हीर दा के साथ वकील साहब को मेरी खोज में भेजा गया।
सारे मित्र परेशान, इधर खोज उधर खोज, समझ नहीं आ रहा था कि कहां गया। जब मेरी खोज बीन चोटी तक पहुंच गई और सबको लगा कि अब तो वकील साहब और हीर दा के साथ रात के अंधेरे में अल्मोड़ा वापसी ही अंतिम उपाय है, कहीं न कहीं किसी झाड़ी में घायल मेरी प्राप्ति संभव है। अब तक मुकेश पंत जो मंद-मंद मुस्कुराकर वापसी के प्रस्ताव को टाल रहा था, खिलखिलाकर बोला, “राजेश, इस अंधेरी रात और जानवरों से भरे जंगल में अल्मोड़ा वापसी की कल्पना भी नहीं कर सकता। जिस इंसान को शाम सात बजे के बाद चंपा नौला घर जाने के लिए साथ चाहिए, वो इस घने अंधेरे में ऐसा करना तो दूर सोच भी नहीं सकता… चलो किसी कमरे में सो रहा होगा।”
और जनाब, हम सब मित्रों ने आपको एक कमरे में सोफे के पीछे छिपकर सोता पाया। उधर, तीन घंटे की दौड़धूप कर वकील साहब और हीर दा थके-मांदे, खीसे हुए वापस लौटे। तब सारे मित्रों के चेहरों पर यह सवाल मुस्कुरा रहा था कि वकील साहब, मुर्गा कैसा लगा?